तयम्मुम के अहकाम

696. अगर पेशानी या हाथों की पुश्त के ज़रा से हिस्से का भी मसह न करे तो तयम्मुम बातिल है। चाहे उसने जान बूझ कर ऐसा किया हो या भूल या मसला न जानने की बिना पर। लेकिन ज़्यादा दिक़्क़त करने की भी  ज़रूरत नही है। अगर यह कहा जासके कि तमाम पेशानी और हाथों का मसा हो गया है तो इतना ही काफ़ी है।

697. यह यक़ीन करने के लिए कि हाथ की तमाम पुश्त पर मसा कर लिया है कलाई से कुछ ऊपर वाले हिस्से का भी मसा कर लेना चाहिए, लेकिन उंगलियों के दरमियान मसा करना ज़रूरी नहीं है।

698. एहतियाते वाजिब की बिना पर पेशानी और हथेलियों की पुश्त का मसा ऊपर से नीचे की तरफ़ करना चाहिए और इसके तमाम कामों को मुत्तसिल (निरन्तर) तौर पर अंजाम देना चाहिए और अगर उन कामों के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि लोग यह न कहें कि वह तयम्मुम कर रहा है तो तयम्मुम बातिल है।

699.  अगर किसी पर ग़ुस्ल और वुज़ू दोनों के बदले तयम्मुम वाजिब हो तो नियत   करते वक़्त मुऐय्यन करे कि उसका तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले,  अगर कई तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले हों तो ुस ग़ुस्ल को मुऐयन करे, अगर भूले से वुज़ू के बदले तयम्मुम की जगह पर ग़ुस्ल के बदले और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम की जगह पर वुज़ू के बदले तयम्मुम की नियत करे या ग़ुस्ले जनाबत के बदले तयम्मुम की जगह पर ग़ुस्ले मसे मैयित के बदले तयम्मुम की नियत करे तो अगर उसकी ग़लती तशख़ीस में न हो तो ुसका तयम्मुम बातिल है। लेकिन अगर उस पर एक तयम्मुम वाजिब हो और वह नियत   करे कि मैं इस वक़्त अपना वज़ीफ़ा अंजाम दे रहा हूँ तो काफ़ी है।  

700. एहतियाते मुस्तहब की बिना पर तयम्मुम में पेशानी, हाथों की हथेलियों और हाथों की पुश्त का पाक होना ज़रूरी है। लेकिन अगर हथेलियाँ नजिस हों और ुनको पाक करना भी मुमकिन न हो तो ुन्ही नजिस हथेलियों से तयम्मुम किया जा सकता है। लेकिन अगर हथेलियों की निजासत एक जगह से दूसरी जगह फैलने वाली हो तो हथेलियों की पुश्त या ज़िराअ[1] से तयम्मुम करना चाहिए।

701. इंसान को चाहिए कि तयम्मुम करते वक़्त अगर हाथ में कोई अंगूठी हो तो उसे उतार दे और अगर पेशानी या हाथों की पुश्त या हथेलियों पर कोई चीज़ चिपकी हुई हो तो उसको हटा दे।

702. अगर किसी इंसान की पेशानी या हाथों की पुश्त पर ज़ख़्म हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो और उसे खोला न जा सकता हो तो ज़रूरी है कि उस के ऊपर हाथ फेरे और अगर हथेली ज़ख़्मी हो और उस पर कपड़ा या कोई पट्टी वग़ैरा बंधी हो जिसे खोला न जा सकता हो तो जरूरी है कि कपड़े या पट्टी वग़ैरा समेत हाथ उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे।

703. अगर किसी इंसान की पेशानी और हाथों की पुश्त पर बाल हों तो कोई हरज नही है, लेकिन अगर किसी के सर के बाल पेशानी पर आ गिरे हों तो उहें पीछे हटा  देना चाहिए।

704. अगर किसी को एहतेमाल हो कि उसकी पेशानी या हथेलियों या हाथों की पुश्त पर कोई रुकावट है और उसका यह एहतेमाल लोगों की नज़रों में सही हो, तो ज़रूरी है कि छान बीन करे यहाँ तक कि उसे यक़ीन या इत्मिनान हो जाये कि रुकावट मौजूद नही है।

705. अगर किसी इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह ख़ुद तयम्मुम न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे इंसान को अपना नायब बनाये और वह नायब उसे उसके हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसके हाथों से तयम्मुम कराये।  अगर यह मुमकिन न हो तो नायब अपने हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और उसकी पेशानी और दोनों हाथों की पुश्त पर फेरे।  

706. अगर कोई इंसान तयम्मुम करते वक़्त किसी हिस्से के बारे में शक करे कि उसका तयम्मुम किया है या नही तो उसे अपने शक की परवा नही करनी चाहिए उसका तयम्मुम सही है। अगर किसी हिस्से का तयम्मुम करने के बाद शक करे कि सही किया है या नही तब भी उसे इसकी परवा नही करनी चाहिए उसका तयम्मुम सही है।

707. अगर किसी इंसान को बायें हाथ का मसा करने के बाद शक हो कि आया उसने तयम्मुम दुरुस्त किया है या नहीं तो उसका तयम्मुम सही है।

708. जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो एहतियाते वाजिब की बिना पर वह नमाज़ के वक़्त से पहले नमाज़ के लिए तयम्मुम न करे। लेकिन अगर वह किसी दूसरे वाजिब या मुस्तहब काम के लिए तयम्मुम करे और नमाज़ के वक़्त तक ुसका वह उज़्र बाक़ी रहे तो वह उसी तयम्मुम से नमाज़ पढ़ सकता है। 

709. जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर उवह जानता हो या ुसे एहतेमाल हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र   बाक़ी रहेगा तो वह वक़्त में गुंजाइश होते हुए भी तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर वह जानता हो कि आख़िरी वक़्त तक उसका उज़्र   दूर हो जायेगा तो ज़रूरी है कि इंतिज़ार करे और वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़े। या वक़्त तंग हो जाने के बाद तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े।  

710. अगर कोई इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो तो वह अपनी क़ज़ा नमाज़ें तयम्मुम के साथ पढ़ सकता है। चाहे उसे अपने उज़्र के जल्दी ही ख़त्म हो जाने का एहतेमाल भी हो, लेकिन अगर क़ज़ा नमाज़ों के फ़ौत होने से पहले उज़्र के ख़त्म हो जाने का यक़ीन हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे इन्तेज़ार करना चाहिए। लेकिन अगर क़ज़ा नमाज़ के फ़ौत हो जाने का गुमान हो तो उन नमाज़ों को तयम्मुम के साथ पढ़ना ज़रूरी है।

711. जो इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो उसके लिए जायज़ है कि वह उन मुस्तहब नमाज़ों को जिन का वक़्त मुऐय्यन है, जैसे दिन रात की नवाफ़िल नमाज़ें, तयम्मुम कर के पढ़े। यहाँ तक वह ुन्हें अव्वले वक़्क में भी पढ़ सकता है इस शर्त के साथ कि उसे आख़िरी वक़्त तक उज़्र   दूर हो जाने का इल्म न हो।

712. अगर कोई इंसान पानी न मिलने की वजह से या किसी दूसरे उज़्र की बिना पर तयम्मुम करे तो उज़्र के ख़त्म हो जाने के बाद उस का तयम्मुम बातिल हो जाता है।

713. जो चीज़ें वुज़ू को बातिल करती हैं वह वुज़ू के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल करती हैं और जो चीज़ें ग़ुस्ल को बातिल करती हैं वह ग़ुस्ल के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल कर देती हैं।

714. अगर कोई इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो और उस पर कई ग़ुस्ल वाजिब हों तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह उनमें से हर ग़ुस्ल के बदले एक तयम्मुम करे।

715. जो इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो, अगर वह कोई ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिसके लिए गुस्ल वाजिब हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और जो इंसान  वुज़ू न कर सकता हो अगर वह कोई ऐसा काम करना चाहे जिस के लिए वुज़ू वाजिब हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू के बदले तयम्मुम करे।

716. अगर कोई इंसान ग़ुस्ले जनाबत के बदले तयम्मुम करे तो नमाज़ के लिए वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है। लेकिन अगर दूसरे ग़ुस्लों के बदले तयम्मुम करे तो उसे वुज़ू भी करना चाहिए और अगर वह वुज़ू न कर सकता हो तो वुज़ू के बदले एक और तयम्मुम करे।

717. अगर कोई इंसान ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और बाद में उसे किसी ऐसी सूरत से दोचार होना पडे जो वुज़ू को बातिल कर देती हो और वह बाद की नमाज़ों के लिए ग़ुस्ल भी न कर सकता हो तो उसे वुज़ू करना चाहिए और अगर वुज़ू न कर सकता हो तो वुज़ू के बदले तयम्मुम करना चाहिए।    

718. अगर किसी इंसान का वज़ीफ़ा यह हो कि वुज़ू और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे तो यह दो तयम्मुम ही काफ़ी हैं और किसी तयम्मुम की ज़रूरत नही है।

719. जिस इंसान का फ़रीज़ा तयम्मुम हो अगर वह किसी काम के लिए तयम्मुम करे तो जब तक उस का तयम्मुम और उज़्र बाक़ी है वह उस तयम्मुम के साथ उन तमाम कामों को कर सकता है जो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के करने चाहियें। लेकिन अगर उसने वक़्त की तंगी या पानी होते हुए नमाज़े मैयित के लिए या सोने के लिए तयम्मुम किया हो तो वह इस तयम्मुम से फ़क़त वही काम कर सकता है जिसके लिए उसने तयम्मुम किया हो।

720. कुछ सूरतें ऐसी हैं जिनमें मुस्तहब है कि जो नमाजें इंसान ने तयम्मुम के साथ पढी है उन्हें दोबारा पढ़े:

1- अगर पानी के इस्तेमाल से नुक़्सान का डर हो और उसने जान बूझ कर अपने आप को जुनुब (किसी भी प्रकार से वीर्य निकालना) कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

2- अगर यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा अपने आपको जान बूझ कर जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

3- अगर आख़िर वक़्त तक पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो पानी मिल सकता था।

4- अगर जान बूझ कर नमाज़ पढ़ने में देर की हो और आख़िरी वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

5- अगर यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि पानी नही मिलेगा, अपने पास मौजूद  पानी को गिरा दिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।


[1]  कोहनियों से हाथों की उँगलियों के सिरों तक के हिस्से को ज़िराअ कहते है।