ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त

727.  अगर लक़ड़ी या ऐसी ही कोई दूसरी साधी चीज़ को इकसार ज़मीन में गाड़ा जाये तो सुबह के वक़्त जिस वक़्त सूरज निकलता है उसका साया पश्चिम की तरफ़ पड़ता है और जैसे जैसे सूरज ऊँचा होता जाता है,  उसका साया घटता जाता है और जब वह साया घटने की आख़री मंज़िल पर पहुँचता है तो हमारे यहाँ जोहरे शरई का अव्वले वक़्त हो जाता है, जैसे ही ज़ोहर तमाम होती है, उसका साया पूरब की तरफ़ पलट जाता है और जैसे जैसे सूरज पश्चिम की तरफ़ ढलता जाता है साया फिर बढने लगता है। इस बिना पर जब साया कमी की आख़री दर्जे तक पहुँचने के बाद दोबारा बढ़ने लगे तो वह वक़्त ज़ोहरे शरई होता है। लेकिन कुछ शहरों में मसलन मक्क-ए-मुकर्रेमा में जहाँ कभी कभी ज़ोहर के वक़्त साया बिल्कुल ही ख़त्म हो जाता है और जब साया दोबारा ज़ाहिर होता है तो मालूम होता है कि ज़ोहर का वक़्त हो गया है।

728.  ज़ोहर का वक़्त मुऐयन करने के लिए जिस लकड़ी या किसी दूसरी चीज़ को ज़मीन में गाड़ा जाता है, उसे शाख़स कहते है।  

729.  ज़ोहर और अस्र की नमाज़ में से हर एक का अपना मख़सूस और मुशतरक वक़्त है। ज़ोहर की नमाज का मख़सूस वक़्त अव्वले ज़ोहर से इतनी देर गुज़रने के बाद जितने में ज़ोहर की नमाज़ पढ़ी जासके और अस्र का मख़सूस वक़्त वह है जब मग़रिब में फ़क़त इतना वक़्त बाक़ी रह जाये कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़ी जा सके, अगर उस वक़्त तक किसी ने ज़ोहर की नमाज़ न पढ़ी हो तो उसकी ज़ोहर की नमाज़ कज़ा है और उसे चाहिए कि अस्र की नमाज़ पढ़े। नमाज़े ज़ोहर के मख़सूस वक़्त और नमाज़े अस्र के मख़सूस वक़्त के बीच, ज़ोहर व अस्र की नमाज़ का मुशतरक वक़्त है। अगर इस वक़्त में कोई भूले से ज़ोहर की जगह अस्र और अस्र की जगह ज़ोहर की नमाज़ पढ़ले तो उसकी नमाज़ सही है।  

730.  अगर कोई इंसान ज़ोहर की नमाज़ से पहले,  भूले से अस्र की नमाज़ पढ़ने लगे और नामाज़ को दौरान उसे याद आजाये कि उससे ग़लती हुई है तो उसे चाहिए कि नियत को नमाज़े जोहर की तरफ़ पलटा दे, यानी नियत करे कि जो कुछ में पढ़ चुका हूँ और पढ़ रहा हूँ और पढ़ूगा वह तमाम की तमाम नमाज़े ज़ोहर है और नमाज़ के ख़त्म होने के बाद अस्र की नमाज़ पढ़े। अगर ऐसा नमाज़े ज़ोहर के मख़सूस वक़्त में हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर नियत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ पलटा दे और नमाज़ को तमाम करके , उसे दोबारा भी पढ़े।

731.  जुमे की नमाज़ दो रकत है और जुमे के दिन ज़ोहर की नमाज़ की जगह ले लेती है। यह नमाज़ पैग़म्बर इस्लाम (स.) व आइम्माए मासूमीन अलैहिमुस सलाम की मौजूदगी में वाजिबे ऐनी है, लेकिन ग़ैबते कुबरा के ज़माने में वाजिबे तख़ीरी है। यानी नमाज़े जुमा और नमाज़े ज़ोहर दोनों में से जिसे चाहें पढ़ें। लेकिन जब हुकूमते अदले इस्लामी हो और नमाज़े जुमा क़ाइम हो रही हो तो बेहतर है कि जुमे की ही नमाज़ पढ़ी जाये।

732.  एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़े जुमा को उस वक़्त के बाद नही पढ़ना चाहिए जिसे आम तौर पर अव्वले ज़ोहर कहा जाता है। अगर अव्वले ज़ोहर से ज़्यादा वक़्त हो जाये तो फिर जुमे की जगह ज़ोहर की नमाज़ पढ़नी चाहिए।

733.   जैसा कि बयान किया जा चुका है कि ज़ोहर व अस्र और मग़रिब व इशा में से हर एक का एक मख़सूस वक़्त है, अगर कोई इंसान जान बूझ कर अस्र की नमाज़ को ज़ोहर के मख़सूस वक़्त में  या इशा की नमाज़ को मग़रिब के मख़सूस वक़्त में पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर वह ज़ोहर या मग़रिब के मख़सूस वक़्त में किसी दूसरी नमाज़ को पढ़ना चाहे जैसे सुबह की क़ज़ा नमाज़, तो उसकी नमाज़ सही है।