मस्जिद के अहकाम

915. मस्जिद की ज़मीन, छत और मस्जिद की दीवार को अन्दर से नजिस करना हराम है और जिस इंसान को पता चले कि इनमें से कोई जगह नजिस हो गई है तो उसको फ़ौरन पाक करना ज़रूरी है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद की दीवार के बाहरी हिस्से को भी नजिस न किया जाये और अगर वह नजिस हो जाये तो निजासत को पाक करे। बाहरी दीवार को पाक करना सिर्फ़ इस सूरत में ज़रूरी नही है जब वक़्फ़ करने वाले ने उसे मस्जिद का हिस्सा क़रार न दिया हो।  

916. अगर कोई इंसान मस्जिद को पाक करने पर क़ादिर न हो, या उसे मस्जिद पाक करने के लिए किसी दूसरे की मदद की ज़रूरत हो और उसे कोई न मिल रहा हो, तो उस पर मस्जिद को पाक करना वाजिब नही है। लेकिन किसी ऐसे इंसान को बता देना ज़रूरी है, जो मस्जिद को पाक कर सकता हो।

917. अगर मस्जिद की कोई ऐसी जगह नजिस हो गई हो जिसे खोदे या तोड़े बग़ैर, पाक करना मुमकिन न हो तो उस जगह को खोद या तोड़ देना चाहिए, लेकिन यह सिर्फ़ उस हालत में है, जबकि कुछ हिस्सा ही तोड़ना पडे। खोदी हुई जगह को भरना और तोड़ी हुई जगह को बनाना वाजिब नही है। लेकिन जिस इंसान ने उसे नजिस किया है अगर वह खोदे या तोड़े तो अगर उसके इम्कान में हो तो वह खोदी हुई जगह को भरे या तोड़ी हुई जगह मरम्मत करे।

918. अगर कोई इंसान मस्जिद को ग़स्ब करके उस पर अपना घर या कोई ऐसी ही चीज़ बनाले, या शहर और देहात की सड़कों को चौड़ा करने के लिए अगर मस्जिद का कुछ हिस्सा सड़को में ले लिया जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका नजिस करना जायज़ नही है और उसको पाक करना वाजिब है।

919. मैयित को ग़ुस्ल देने से पहले मस्जिद में रखना, अगर मस्जिद के नजिस होने या मस्जिद की तौहीन का सबब न बने तो कोई हरज नही है, लेकिन बेहतर यह है कि ग़ुस्ल से पहले जनाज़े को मस्जिद में न रखा जाये। लेकिन मैयित को ग़ुस्ल देने के बाद मस्जिद में रखने में कोई हरज नही है।     

920.  पैग़म्बरे इस्लाम (स.) और आइम्मा –ए- मासूमीन अलैहिस्सलाम के हरमों को नजिस करना हराम है। अगर उनके हरमों में से कोई हरम नजिस हो जाये और उसका नजिस रहना उसकी तौहीन का सबब हो तो उसको पाक करना वाजिब है। बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर तौहीन न होती हो तब भी पाक किया जाये।

921. अगर मस्जिद की चटाई नजिस हो जाये तो उसे पाक करना ज़रूरी है।

922. अगर ऐने निजासत (मसलन ख़ून या पेशाब) या नजिस (मसलन नजिस कपड़े जूते)  चीज़ को मस्जिद में ले जाने से मस्जिद की बेहुरमति होती हो तो उसे मस्जिद में ले जाना हराम है।

923. अगर मस्जिद में मजलिसे अज़ा या मज़हबी जशन के लिए शामयाना टाँगा जाये, क़नात लगाई जाये, फ़र्श बिछाया जाये, सियाह पर्दे लटकाये जायें और चाय या ख़ाना का सामान अन्दर लेजाया जाये तो अगर इन चीज़ों से मस्जिद को कोई नुक़्सान न होता हो और नमाज़ पढ़ने में भी कोई रुकावट न हो तो ऐसा करने में कोई हरज नही है।

924. एहतियाते वाजिब यह है मस्जिद को सोने से न सजाया जाये और इसी तरह एहतियात यह है कि मस्जिद को इंसान व हैवान जैसे जानदारों की तस्वीरों से भी न सजाया जाये। लेकिन बेल बूटो जैसी बेजान चीज़ों से सजाना मकरूह है।

925. अगर मस्जिद टूट फूट भी जाये तब भी उसे न बेचा जा सकता है और न ही मिलकियत या सड़क बग़ैरा में शामिल किया जा सकता है।

926. मस्जिद के दरवाज़ों ख़िड़कियों और दूसरी चीज़ों को बेचना हराम है। अगर मस्जिद टूट फूट जाये तब भी उन चीज़ों को उसी मस्जिद की मरमम्त के लिए इस्तेमाल किया जाये। अगर उस मस्जिद के काम की न रही हों तो किसी दूसरी मस्जिद के काम में लाया जाये और अगर दूसरी मस्जिदों के काम की भी न रही हो तो उन्हें बेचा जा सकता है और उससे मिलने वाली रक़म को इम्कान की सूरत में उसी मस्जिद की मरम्मत लगाना चाहिए और अगर मुमकिन न हो तो किसी दूसरी मस्जिद पर ख़र्च कर देना चाहिए।

927. नई मस्जिद बनाना और पुरानी मस्जिदों की मरम्मत करना मुस्तहब है। अगर मस्जिद इतनी ज़्यादा ख़राब हो गई हो कि उसकी मरम्मत न कराई जा सकती हो तो उसे गिरा कर दोबारा बनाना चाहिए। बल्कि अगर मस्जिद सही हो और उसे बड़ा बनाने के लिए उसका गिराना ज़रूरी हो तो  उसे ढहा कर दोबारा बनाया जाये।  

928. मस्जिद को साफ़ सुथरा रखना और उसमें चराग़ जलाना मुस्तहब है। अगर कोई मस्जिद में जाना चाहे तो मुस्तहब है कि ख़ुशबू लगाये पाक, अच्छा व क़ीमती लिबास पहने और अपने जूतों के तलवों की देख भाल करे कि कहीँ कोई निजासत तो नही लगी है। मस्जिद में दाख़िल होते वक़्त पहले दाहिना पैर रखे और बाहर आते वक़्त पहले बांया पैर बाहर निकाले। सबसे पहले मस्जिद में पहुँचना और सबके बाद मस्जिद से बाहर आना भी मुस्तहब है।

929. अगर कोई इंसान मस्जिद में दाख़िल हो तो मुस्तहब है कि दो रकअत नमाज़ तहिय्यत व मस्जिद के एहतेराम की नियत से पढ़े और अगर कोई दूसरी वाजिब या मुस्तहब नमाज़ पढ़ले तो वह भी काफ़ी है।

930. अगर इंसान मजबूर न हो तो मस्जिद में सोना, काम करना, दुनियावी कामों के बारे में बात चीत करना और ऐसे शेर पढ़ना जिनमें कोई काम की बात व नसीहत न हो, मकरूह है। इसी तरह मस्जिद में थूकना, नाक सिनकना और बलग़म फेंकना मकरूह है। इसके अलावा गुम शुदा इंसान व चीज़ को तलाश करने के लिए ज़ोर से बोलना भी मकरूह है। लेकिन ऊँची आवाज़ में अज़ान कहने में कोई हरज नही है।

931. दीवाने और बच्चे को मस्जिद में लाना मकरूह है। लेकिन अगर बच्चो को मस्जिद में लाने से कोई मुशकिल पेश न आये और इससे उनके अन्दर नमाज़ व मस्जिद का शौक़ पैदा होता हो तो उनका लाना मुस्तहब है।  

932.  उस इंसान का भी मस्जिद में जाना मकरूह है, जिसने लहसुन प्याज़ या इन्हीं जैसी दूसरी चीज़ें खाईं हों और उनकी बू लोगों को ना गवार गुज़रती हो।