अज़ान व इक़ामत

933. हर मर्द और औरत के लिए रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों से पहले अज़ान व इक़ामत कहना मुस्तहब है। लेकिन ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुरबान की नमाज़ से पहले तीन बार अस्सलात कहना मुस्तहब है। रोज़ाना की बाजिब नमाज़ों के अलावा दूसरी वाजिब नमाज़ों से पहले भी रिजाअ की नियत से तीन  बार अस्सलात कहनवा चाहिए।

934. मुस्तहब है कि बच्चे की पैदाइश के पहले दिन या नाफ़ उखड़ने से पहले उसके दाहिने कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत कही जाये।

935. अज़ान में अठ्ठारह जुमले हैं।

अल्लाहु अकबर, चार बार

अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह, दो बार

अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, दो बार

हय्या अलस्सलात, दो बार

हय्या अलल फ़लाह, दो बार

हय्या अला ख़ैरिल अमल, दो बार

अल्लाहु अकबर, दो बार

ला लाहा इल्लल्लाह, दो बार ।

और इक़ामत में सतरह जुम्ले हैं, जो इस तरह हैं।

अल्लाहु अकबर, दो बार

अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह, दो बार

अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, दो बार

हय्या अलस्सलात, दो बार

हय्या अलल फ़लाह, दो बार

हय्या अला ख़ैरिल अमल, दो बार

क़द क़ा-मतिस्सलात, दो बार

अल्लाहु अकबर, दो बार

ला इलाहा इल्लल्लाह, एक बार।

936. अशहदु अन्ना अमीरल मोमिनीना अज़ान व इक़ामत का हिस्सा नही है, लेकिन अगर अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह के बाद क़ुरबत की नियत से कहा जाये तो बेहतर है।

अज़ान व इक़ामत का तर्जमा

अल्लाहु अकबर यानी अल्लाह सबसे बड़ा है। अल्लाह इससे बहुत बड़ा है कि उसकी तारीफ़ की जा सके।

अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह, यानी मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा और कोई ख़ुदा नही है।

अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, यानी मैं गवाही देता हूँ कि हज़रत मुहम्मद बिन अब्दुल्ला (स.) अल्लाह के रसूल हैं।

अशहदु अन्ना अमीरल मोमेनीना अलीयन वली युल्लाह, यानी मैं गवाही देता हूँ कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम मोमिनों के अमीर और अल्लाह के वली हैं।

हय्या अलस्सलात, यानी नमाज़ के लिए जल्दी करो।

हय्या अलल फ़लाह, यानी कामयाबी के लिए जल्दी करो।

हय्या अला ख़ैरिल अमल, यानी बेहतरीन अमल के लिए जल्दी करो।

क़द क़ा-मतिस्सलात, यानी नमाज़ क़ायम हो गई।

ला इलाहा इल्लल्लाह, यानी अल्लाह के अलावा और कोई ख़ुदा नही है।

937. अज़ान व इक़ामत के जुमलों के बीच ज़्यादा फ़ासला नही देना चाहिए और अगर उनके जुमलों के बीच मामूल से ज़्यादा फ़ासला दे दिया जाये तो अज़ान व इक़ामत दोबारा कहनी चाहिए।

938. अगर अज़ान व इक़ामत में आवाज़ को गले में इस तरह घुमाये कि ग़िना हो जाये, यानी अज़ान व क़ामत इस तरह कहे जैसे गाने बजाने की महफ़िलों में धुने निकाली जाती तो यह हराम है और अज़ान व इक़ामत बातिल है।

939. जब दो नमाज़ों को मिलाकर पढा जा रहा हो तो अगर पहली नमाज़ के लिए अज़ान कही हो तो बाद वाली नमाज़ के लिए अज़ान साक़ित है। चाहे दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना मुस्तहब हो या न हो, इस बिना पर निम्न लिख़ित मौक़ों पर अज़ान साक़ित हो जायेगी।

1. जुमे के दिन अस्र की अज़ान, जबकि वह नमाज़े जुमा या नमाज़े ज़ोहर से मिला कर पढ़ी जाये ।

2. अर्फ़े के दिन (नवीं ज़िलहिज्जा) अस्र की अज़ान, जबकि वह ज़ोह्र की नमाज़ के साथ पढ़ी जाये

3. ईदे क़ुरबान की रात में इशा की अज़ान, उस इंसान के लिए जो मशअरिल हराम में मौजूद हो और इशा की नमाज़ को मगरिब के साथ पढ़े। ऊपर बयान किये गये मौक़ो पर दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना मुस्तहब है।

4. नमाज़े अस्र व इशा की अज़ान, उस औरत के लिए जो मुस्तेहाजः हो क्योंकि उसके लिए ज़रूरी है कि नमाज़े ज़ोह्र के फ़ौरन बाद अस्र और नमाज़े मग़रिब के फ़ौरन बाद इशा की नमाज़ पढ़े।

5. नमाज़े अस्र व इशा की अज़ान, उस इंसान के लिए जो पेशाब या पाख़ाने को न रोक सकता हो।

इन पाँच नमाज़ोंसे पहले अज़ान सिर्फ़ इसी सूरत में साक़ित होगी जब इन्हें पहली नमाज़ के फ़ौरन बाद पढ़ा जाये, या दोनों के बीच बहुत कम फ़ासला हो, ज़ाहिर है कि नाफ़िला पढ़ने से दोनों के दरमियान फ़ासला हो जाता है।

940. अगर नमाज़े जमाअत के लिए अज़ान व इक़ामत कही जा चुकी हो तो जो इंसान जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ रहा हो उसे अपनी नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत नही कहनी चाहिे चाहे उसने अज़ान व इक़ामत न सुनी हो या वह अज़ान व इक़ामत के वक़्त वहाँ मौजूद न हो।

941. अगर कोई इंसान नमाज़ के लिए मस्जिद में जाये और देखे कि नमाज़े जमाअत ख़त्म हो चुकी है तो जब तक सफ़े टूट न जाये और लोग इधर उधर न हो जाये तो अगर उस नमाज़े जमा्त के लिए अज़ान व इक़ामत कही गी हो तो वह अपनी नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत न कहे।  

942. जिस जगह पर लोग जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ रहे हों या उनकी नमाज़े जमाअत ताज़ा ख़त्म हुई हो तो अगर वहाँ पर कोई इंसान सफ़ें टूटने और लोगों के इधर उधर होने से पहले, अपनी फुरादा नमाज़ पढ़ना चाहे या किसी दूसरी ऐसी नमाज़े जमाअत में शरीक होना चाहे जो अभी बरपा हो रही हो, तो उससे इन छः शर्तों के साथ अज़ान व इक़ामत साक़ित है।

  1. पहली नमाज़े जमाअत के लिए अज़ान व इक़ामत कही गई हो।
  2. नमाज़े जमाअत बातिल न हो।
  3. उस इंसान की नमाज़ और नमाज़े जमाअत एक ही जगह पर हो। लिहाज़ा अगर नमाज़े जमाअत मस्जिद के अन्दर पढ़ी जाये और वह इंसान फ़ुरादा नमाज़ मस्जिद की छत पर पढ़ना चाहे तो मुस्तहब है कि वह अज़ान व इक़ामत कहे।
  4. उसकी नमाज़ और नमाज़े जमाअत, दोनों अदा हो।
  5. उस इंसान की नमाज़ और नमाज़े जमाअत का वक़्त मुशतरक हो मसलन दोनों नमाज़े ज़ोह्र या नमाज़े अस्र पढ़ें। या नमाज़े ज़ोह्र जमाअत से पढ़ी जा रही हो और वह नमाज़े अस्र पढ़े या वह नमाज़े ज़ोह्र पढ़े और जमाअत की नमाज़, नमाज़े अस्र हो।

943.जो शर्तें, इससे पहले मस्अले में बयान की गई हैं अगर कोई इंसान उनमें से दूसरी शर्त के बारे में शक करे यानी उसे शक हो कि नमाज़े जमाअत सही थी या नही तो उससे अज़ान व इक़ामत साक़ित है। लेकिन अगर इसके अलावा बाक़ी चार शर्तों के बारे में शक करे तो बेहतर है कि रजा की नियत से अज़ान व इक़ामत कहे।

944.अगर कोई इंसान किसी दूसरे की अज़ान या इक़ामत को सुने तो मुस्तहब है कि उसका जो हिस्सा सुने उसे ख़ुद भी आहिस्ता आहिस्ता दोहराए। लेकिन हय्या अलस्सलात से हय्या अला ख़ैरिल अमल तक सवाब की उम्मीद से कहे।

945.अगर किसी इंसान ने किसी दूसरे की अज़ान व इक़ामत सुनी हो तो चाहे उसने उन जुमलो को दोहराया हो या न दोहराया हो, अगर अज़ान व इक़ामत और उस नमाज़ के बीच जो वह पढ़ना चाहता है, ज़्यादा फ़ासिला न हुआ हो तो वह अपनी नमाज़ बग़ैर अज़ान व इक़ामत कहे पढ़ सकता है।  

946.अगर कोई मर्द औरत की अज़ान को लज़्ज़त के क़स्द से सुने तो उसकी अज़ान साक़ित नही होगी, बल्कि अगर लज़्ज़त के इरादे के बग़ैर भी सुने तब भी एहतियाते वाजिब की बिना उससे अज़ान साक़ित नही होगी। लेकिन अगर औरत मर्द की अज़ान सुने तो उससे अज़ान साक़ित हो जायेगी।

947.नमाज़े जमाअत की अज़ान व इक़ामत मर्द को कहनी चाहिए।

948.इक़ामत अज़ान के बाद कहनी चाहिए, अगर कोई इक़ामत अज़ान से पहले कहे तो सही नही है।  

949.अगर कोई इंसान अज़ान व इक़ामत के जुमलों को तरतीब के बग़ैर कहे मसलन हय्या अलल फ़लाह को हय्या अलस्सलः से पहले कहे तो ज़रूरी है कि जहाँ से तरतीब बिगड़ी हो वहाँ से दुबारा कहे।

950.अज़ान व इक़ामत के बीच फ़ासिला नही देना चाहिए और अगर उन दोनों के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि जो अज़ान कही जा चुकी हो, उसे, उस इक़ामत की अज़ान शुमार न किया जाये तो मुस्तहब है कि अज़ान व इक़ामत दोबारा कही जायें। इसके अलावा अगर अज़ान व इक़ामत और नमाज़ के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि वह अज़ान व इक़ामत उस नमाज़ की अज़ान व इक़ामत न कही जा सके तो मुस्तहब है कि उस नमाज़ के लिए दोबारा अज़ान व इक़ामत कही जाये।

951.अज़ान व इक़ामत का सही अरबी में कहना ज़रूरी है। लिहाज़ा अगर कोई इंसान उन्हें ग़लत अरबी में कहे या एक हर्फ़ की जगह कोई दूसरा हर्फ़ कहे या उनका तर्जमा उर्दू या हिन्दी में कहे तो सही नही है।

952.अज़ान व इक़ामत को नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद कहना चाहिए। अगर कोई इंसान जान बूझ कर या भूल चूक की बिना पर अज़ान व इक़ामत को वक़्त से पहले कहे तो वह बातिल है।

953.अगर कोई इंसान इक़ामत कहने से पहले शक करे कि अज़ान कही है या नही तो ज़रूरी है कि पहले अज़ान कहे लेकिन अअगर इक़ामत कहते  वक़्त शक करे कि अज़ान कही है या नही तो अज़ान कहना ज़रूरी नही है।

954.अगर अज़ान व इक़ामत कहते वक़्त बाद वाला जुमला कहने से पहले शक करे कि इससे पहला जुमला कहा है या नही तो जिस जुमले के बारे में उसे शक हो वह जुमला कहे, लेकिन अगर उसे अज़ान व इक़ामत का कोई जुमला कहते हुए शक हो कि उसने इससे पहले वाला जुमला कहा है या नही तो उस जुमले को कहना ज़रूरी नही है।

955.अज़ान कहते वक़्त मुस्तहब है कि इंअसान वुज़ू से हो, किबला रुख़ खड़ा हो, दोनों हाथों को कानों पर रखे और ऊँची आवाज़ में अज़ान कहे, दो जुमलों के बीच थोड़ा फ़ासिला रखे और दो जुमलों के बीच बाते न करे।

956.इक़ामत कहते वक़्त मुस्तहब है कि इंसान का बदन साकिन हो और इक़ामत को अज़ान के मुक़ाबले में आहिस्ता कहा जाये और उसके दो जुमलों को आपस में न मिलाया जाये, लेकिन दो जुमलों के बीच इतना फ़ासिला  न दिया जाये, जितना अज़ान के जुमलों के बीच दिया जाता है।

957.अज़ान कहने के बाद और इक़ामत कहने से पहले एक क़दम आगे बढ़ना या थोड़ी देर के लिए बैठना या सजदा करना या अल्लाह का ज़िक्र करना या दुआ पढ़ना या थोड़ी देर के लिए साकित हो जाना या कोई बात कहना या दो रकत नमाज़ पढ़ना मुस्तहब है। लेकिन सुबह की अज़ान व इक़ामत के बीच कलाम करना और नमाज़े मग़रिब की अज़ान व इक़ामत के बीच दो रकत नमाज़ पढ़ना मुस्तहब नही है।

958.मुस्तहब है कि जिस इंसान को अज़ान देने पर मुक़र्रर (नियुक्त) किया जाये वह आदिल, वक़्त को पहचान ने वाला हो और उसकी आवाज़ में गूँज हो, यह भी मुस्तहब है कि वह उँची जगह खड़ा हो कर अज़ान कहे। लेकिन अगर अज़ान माइक के ज़रिये कही जा रही हो तो नीचे खड़े होकर अज़ान कहने में भी कोई हरज नही है।

959.रेड़ियो, टीवी या टेप रिकोर्डर के ज़रिये अज़ान सपनना नमाज़ के लिए काफ़ी नही है, बल्कि नमाज़ी को अज़ान ख़ुद कहनी चाहिए।

960.एहतियाते वाजिब यह है कि अज़ान हमेशा नमाज़ के क़स्द से कहनी चाहिए, नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के ऐलान के लिए नमाज़ के क़स्द के बग़ैर अज़ान कहना, मुशकिल है।

961.अगर कोई अपनी फ़ुरादा नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत कहे और इसके बाद कोई उससे नमाज़े जमाअत पढ़ाने को कहे या वह ख़ुद किसी जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना चाहे, तो वह अज़ान व इक़ामत काफ़ी नही है, मुस्तहब है कि अज़ान व इक़ामत दोबारा कही जाये।