मुसाफ़िर की नमाज़

मुसाफ़िर को चाहिए कि चार रकअती नमाज़ों को, आठ शर्तों के साथ, दो रकअत पढ़े:

पहली शर्त:  उसका सफ़र आठ फरसख़ यानी 45 किलो मीटर हो।

1289.जिसका आना जाना दोनों मिला कर आठ फ़रसख हो तो अगर जाना चार फ़रसख़ से कम न हो तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए लेकिन अगर जाना तीन फ़रसख़ और आना पाँच फ़रसख़ हो तो नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए।

1290.अगर आना व जाना दोनों मिलाकर आठ फ़रसख़ हो तो नमाज़ को क़स्र पढ़े चाहे उसी दिन या रात को पलट आये या कुछ दिन बाद ।

1291.अगर सफ़र आठ फ़रसख़ से कुछ कम हो या शक हो कि सफ़र आठ फ़रसख़ है या नही तो नमाज़ क़स्र नही पढ़नी चाहिए और अगर शक की सूरत में तहक़ीक़ करने में उसे इतनी मुशकिल का सामना हो जिसे वह बर्दाश्त न कर सकता हो तो नमाज़ पूरी पढ़े और अगर ैसी मुश्किल का सामना न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि तहक़ीक़ करे, अगर दो आदिल इंसान गवाही दें या लोगों के दरमियान मशहूर हो कि यह सफ़र आठ फ़रसख़ है तो नमाज़ क़स्र पढ़े, या अपनी नमाज़ को एहतियातन कस्र भी पढ़े और पूरी भी पढ़े। 

1292.अगर एक आदिल इंसान कहे कि यह सफ़र आठ फ़रसख़ है तो ज़ाहिर यह है कि उसकी ख़बर से आठ फ़रसख़ साबित नही होगा। इस लिए उस मुसाफ़िर चाहिए कि नमाज़ पूरी पढ़े और बेहतर यह है कि दोनों नमाज़ों को जमा करे यानी क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1293.अगर कोई यह यक़ीन करते हुए कि उसका सफ़र आठ फ़रसख़ है नमाज़ को क़स्र पढ़ले और बाद में पता चले कि उसका सफ़र आठ फ़रसख़ नही था तो अगर नमाज़ का वक़्त बाक़ी हो तो दोबारा चार रकअत पढ़े और अगर वक़्त गुज़र गया हो तो उसकी क़ज़ा करे।

1294. अगर किसी को यक़ीन हो कि उसका सफ़र आठ फ़रसख़ नही है या शक हो कि आठ फ़रसख़ है या नही तो अगर उसे रास्तें में मालूम हो जाये कि उसका सफ़र आठ फ़रसख़ है तो अगर थोड़ा रास्ता भी बाक़ी रह गया है तो नमाज़ को क़स्र पढ़े और जो पूरी पढ़ चुका हो उनको दोबारा क़स्र पढ़े।

1295. अगर दो जगहों के बीच चार फ़रसख़ से कम का फ़ासला हो और इंसान वहाँ कई बार आये जाये और सब मिलाकर आठ फ़रसख़ हो जाये तब भी नमाज़ पूरी ही पढ़े।

1296.अगर किसी जगह पर जाने के लिए दो रास्ते हों जिनमें से एक रास्ता आठ फ़रसख़ और दूसरा आठ फ़रसख़ से कम हो तो अगर इंसान वहाँ उस रास्ते से जाये जो आठ फ़रसख़ है तो नमाज़ क़स्र पढ़े और अगर उस रास्ते से जाये जो आठ फ़रसख़ से कम है तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1297.अगर शहर की दीवार है तो आठ फ़रसख़ का हिसाब शहर की दीवार से करना चाहिए और अगर दीवार न हो तो शहर के आख़िरी घरों से हिसाब करे और बड़े शहरों में अगर एक महल्ले से दूसरे महल्ले में जाना लोगों की नज़र में आम तौर पर सफ़र माना जाता हो तो आठ फ़रसख को उस महल्ले के आख़री घरों से हिसाब किया जायेगा।

दूसरी शर्त: सफ़र के शुरू से ही आठ फ़रसख़ जाने की निय्यत हो। इस शर्त पर तवज्जो करते हुए, अगर कोई इंसान किसी ऐसी जगह जाने का इरादा करे जो आठ फ़रसख़ से कम हो और फिर वहाँ पहुँचने के बाद किसी दूसरी जगह जाने का इरादा करे तो अगर पहली व दूसरी जगह के बीच आठ फरसख़ का सफ़र हो और वहाँ से दूसरी जगह तक जाने की दूरी कम से कम चार फ़रसख़ हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े, लेकिन अगर पहली जगह से दूसरी जगह का सफ़र आठ फ़रसख़ से कम हो तो नमाज़ पूरी पढ़े, चाहे घर से दूसरी जगह तक का सफ़र आठ फ़रसख़ से ज़्यादा भी हो।  लेकिन अगर शुरू से ही दोनों जगह जाने का इरादा हो यानी उसका इरादा हो कि पहले वहाँ और उसके बाद दूसरी जगह जाऊँगा तो अगर घर से दूसरी जगह तक का आठ फ़रसख़ का सफ़र हो तो नमाज़ क़स्र होगी चाहे घर और पहली जगह के बीच आठ फ़रसख़ से कम का सफ़र हो।  

1298. जो इंसान यह न जानता हो कि उसे कितना सफ़र करना है, जैसे अगर कोई किसी खोई हुई चीज़ को तलाश करने निकले तो चूँकि उसे मालूम नही है कि कितना सफ़र करने के बाद उसे खोई हुई चीज़ मिलेगी तो वह नमाज़ पूरी पढ़ेगा। लेकिन वापसी पर अगर घर तक का फ़ासेला या किसी ऐसी जगह का फ़ासेला जहाँ उसका दस दिन ठहरने का इरादा हो, आठ फ़रसख़ या उससे ज़्यादा हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े। इसी तरह अगर जाते वक़्त इरादा करे कि चार फ़रसख़ तक जायेगा और फिर पलट आये तो अगर आना जाना मिलाकर आठ फ़रसख़ हो और जाना चार फ़रसख़ से कम न हो तो इस हालत में भी नमाज़ क़स्र होगी।  

1299.मुसाफ़िर को उसी सूरत में नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए जब उसका आठ फ़रसख सफ़र का पक्का इरादा हो, अतः अगर कोई इंसान शहर से निकले और उसका इरादा यह हो कि अगर कोई साथी मिल गया तो सफ़र करेगा तो अगर उसे साथी के मिलने का यक़ीन हो तो नमाज़ क़स्र पढ़ेगा और अगर इत्मिनान न हो तो नमाज़ पूरी पढ़ेगा।

1300.जिसका इरादा आठ फ़रसख़ सफ़र करने का हो, चाहे उसे हर दिन थोड़ा ही रास्ता तय करना हो, तो जब वह उस जगह पहुँच जायें जहाँ से शहर की दीवार नज़र न आती हो और अज़ान की आवाज़ भी न सुनाई देती हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े। लेकिन अगर रोज़ाना इतना कम रास्ता तय करे कि लोग यह न कहें कि वह मुसाफ़िर है तो नमाज़ पूरी पढ़े और एहतियाते मुसतहब यह है कि क़स्र भी पढ़े और पूरी भी  अदा करे।

1301.जिसका सफ़र किसी दूसरे इंसान के ताबे हो, जैसे नौकर जो अपने मालिक के साथ सफ़र करते हैं, तो अगर वह यह जानता हो कि सफ़र आठ फ़रसख़ है तो नमाज़ क़स्र पढ़े।    और अगर उसे मालिक के इरादे के बारे में शक हो तो वह उसके बारे में छान बीन करे , लेकिन मालिक के लिए ज़रूरी नही है कि उसे इसकी ख़बर दे।

1302.जिसका सफ़र दूसरे के ताबे (आधीन) हो तो अगर वह जानता हो या उसे गुमान हो कि चार फ़रसख़ से पहले वह उससे अलग हा जायेगा तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1303.जिसका सफ़र दूसरे के ताबे हो अगर उसे शक हो कि चार फ़रसख़ से पहले उससे अलग हो जायेगा या नही तो ज़ाहिर यह है कि नमाज़ पूरी पढ़े लेकिन अगर उसे यह इत्मिनान हो कि चार फ़रसख़ पहुँचने से पहले उससे अलग नही होगा तो नमाज़ कस्र पढ़े और इसी तरह अगर उसका शक इस वजह से हो कि उसे किसी रुकावट के पैदा होने का एहतेमाल हो और उसका वह एहतेमाल लोगों की नज़र में सही हो तो इस सूरत में भी नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

तीसरी शर्त: रास्ते में अपना इरादा न बदले, अतः अगर चार फ़रसख़ पहुँचने से पहले सफ़र का इरादा बदल दे या मुरद्दद हो जाये तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1304. अगर चार फ़रसख़ पहुँचने के बाद सफ़र का इरादा बदल दे तो अगर वहीँ ठहरने का इरादा हो या दस दिन के बाद वापसी का इरादा हो या ठहरने व लौटने में मुरद्दद हो तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1305. अगर चार फ़रसख़ के बाद सफ़र का इरादा बदले और वापसी का इरादा हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े।

1306. अगर कोई इंसान किसी जगह जाने के लिए रवाना हो और कुछ रास्ता चलने के बाद दूसरी जगह जाने का इरादा बनाले तो अगर पहली जगह से वहाँ तक का सफ़र जहाँ अब जाना चाहता ,है आठ फ़रसख़ हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े।

1307.अगर आठ फ़रसख़ पहुँचने से पहले, मुरद्दद हो जाये (यानी असलंजस्य में पड़ जाये)  कि आगे बढ़े या न बढ़े और जब तक असमंजस्य में रहे सफ़र न करे और बाद में आगे बढ़ने का इरादा करे तो उसे अपने सफ़र के आख़िर तक नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1308.अगर मुसाफ़िर आठ फ़रसख़ तक पहुँचने से पहले ही तरद्दद में पड़ जाये (यानी असलंजस्य में पड़ जाये) कि बाक़ी रास्ता तय करे या न करे, और इसी तरद्दुद की हालत में थोड़ा रास्ता चले और उसके बाद अपने सफ़र को जारी रखने का फ़ैसला करे तो अगर बाक़ी बचा हुआ रास्ता आठ फ़रसख़ हो या चार फ़रसख़ हो लेकिन वह जाने और वापस होने का इरादा रखता हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े। लेकिन अगर मुरद्दद होने से पहले और उसके बाद जो रास्ता चले दोनों मिलकर आठ फ़रसख़ हों तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ को पूरा भी पढ़े और क़स्र भी।

चौथी शर्त: आठ फ़रसख़ पहुँचने से पहले अपने वतन से न गुज़रे और रास्ते में कहीँ दस दिन या उससे ज़्यादा न ठहरे। अगर कोई मुसाफ़िर आठ फ़रसख़ पहुँचने से पहले, रास्ते में अपने वतन से गुज़रे या दस दिन किसी जगह पर ठहर जाये तो उसे पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए।

1309.जो इंसान यह न जानता हो कि आठ फ़रसख़ पहुँचने से पहले अपने वतन से गुज़रेगा या नही या दस दिन किसी जगह ठहरेगा या नही तो उसको नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए।

1310.वह इंसान जो आठ फ़रसख़ पहुँचने से पहले अपने वतन से गुज़रना चाहता हो या किसी जगह दस दिन ठहरना चाहता हो, तो अगर वह अपने वतन से गुज़रने या किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा छोड़ दे तब भी ज़रूरी है कि नमाज़ पूरी पढ़े। लेकिन अगर वतन से गुज़रने या जिस जगह पर दस दिन ठहरा हो, वहाँ से आगे का बाक़ी रास्ता आठ फ़रसख़ या चार फ़रसख़ हो और जाने आने का इरादा भी हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े।

पाँचवी शर्त: सफ़र किसी हराम काम के लिए न हो। अगर कोई किसी हराम काम (जैसे चोरी) के लिए सफ़र करे तो नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए। इसी तरह अगर ख़ुद सफ़र हराम हो जैसे अगर सफ़र उसके लिए नुक़सान देह हो या औरत शौहर की इजाज़त के बग़ैर सफ़र करे या औलाद माँ बाप के मना करने पर भी सफ़र करे जबकि वह सफ़र उन पर वाजिब भी न हो और उनकी मुख़ालेफ़त, उनकी नाराज़गी व बे अदबी का सबब हो तो ऐसे सफ़र में नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए। लेकिन अगर सफ़र वाजिब हो जैसे हज का सफ़र तो नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1311.जो सफर माँ बाप के लिए दुख व परेशानी का सबब बने, वह हराम है ऐसे सफ़र में इंसान को नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए और अगर रोज़ा वाजिब हो जाये तो रोज़ा भी रखना चाहिए।

1312.अगर किसी ने हराम काम के लिए सफ़र न किया हो और ख़ुद उसका सफ़र भी हराम न हो तो अगर वह रास्ते में कोई गुनाह करे जैसे शराब पीये या ग़ीबत करे तो उसकी नमाज़ क़स्र होगी।

1313.अगर कोई किसी वाजिब काम से जान बचाने के लिए सफ़र करे तो उसे पूरी नमाज़ पढ़नी होगी। जैसे अगर कोई मक़रूज़ हो और क़र्ज़ को अदा कर सकता हो और जिससे क़र्ज़ लिया है वह उसे वापस भी माँग रहा हो और सफ़र में क़र्ज़ वापस करना मुमकिन न हो तो अगर वह मख़सूसन क़र्ज़ वापस करने से जान बचाने के लिए सफ़र करे तो नमाज़ पूरी पढ़े, लेकिन अगर मख़सूसन वाजिब से जान बचाने के लिए सफ़र न किया हो तो नमाज़ को क़स्र पढ़े और एहतियाते मुसतहब यह है क़स्र भी पढ़े और पूरी भी पढ़े।

1314.अगर कोई अपना मुबाह (जो हराम न हो) सफर ग़स्बी सवारी पर करे तो वह नमाज़ क़स्र पढ़ेगा, लेकिन अगर गस्बी ज़मीन में सफ़र करे तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ कस्र भी पढ़े और पूरी भी।

1315.अगर कोई किसी ज़ालिम के साथ सफ़र करे और वह उसके साथ सफर करने पर मजबूर भी न हो और उसका यह सफ़र ज़ालिम की मदद के लिए हो तो वह नमाज़ पूरी पढ़े। लेकिन अगर वह उसके साथ सफर करने पर मजबूर हो या किसी मज़लूम की जान बचाने के लिए उसके साथ सफ़र कर रहा हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े।

1316.अगर कोई घूमने फिरने और तफ़रीह की ग़रज़ से सफ़र करे तो यह सफ़र हराम नही है लिहाज़ा नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1317.अगर कोई मौज मस्ती के लिए शिकार पर जाये तो नमाज़ पूरी पढ़े और अगर रोज़ी रोटी कमाने के इरादे से शिकार पर जाये तो नमाज़ क़स्र है और अगर अपना माल बढ़ाने के लिए जाये तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़े क़स्र भी पढ़े और पूरी भी पढ़े, लेकिन रोज़ा नही रखना चाहिए।

1318. जिसने गुनाह के लिए सफ़र किया हो अगर वह वापसी के वक़्त तौबा करले तो नमाज़ क़स्र पढ़े और अगर तौबा न करे तो नमाज़ पूरी पढ़े। लेकिन अगर आम लोगों की नज़र में उसका वापसी का सफ़र भी गुनाह के सफ़र का हिस्सा समझा जाता हो तो उसे वापसी में भी पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए जबकि एहतियात यह है कि क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1319.अगर कोई गुनाह के इरादे से सफ़र करे और रास्ते में अपने इरादे को बदल दे तो अगर बाक़ी रास्ता आठ फ़रसख़ रह गया हो या बाक़ी रास्ते की लौट फेर दोनों मिलकर आठ फ़रसख हो और सिर्फ़ जाना चार फ़रसख़ से कम न हो तो नमाज़ क़स्र पढ़े।

1320.अगर कोई गुनाह की निय्यत से सफ़र न करे लेकिन रास्ते में इरादा बदल जाये और बाक़ी रास्ता गुनाह के इरादे से तय करे तो नमाज़ पूरी पढ़े, लेकिन जो नमाज़ें क़स्र पढ़ चुका है वह सही हैं।

छठी शर्त: ख़ाना बदोश न हो। ख़ाना बदोश वह लोग कहलाते हैं जिनका कोई वतन नही होता बल्कि वह बयाबानों में घूमते रहते हैं और जहाँ भी उन्हें अपने व अपने जानवरों के लिए पानी और खुराक मिल जाती है वहीँ पड़ाव डाल देते हैं फिर कुछ दिनों वहाँ रहने के बाद आगे बढ़ जाते हैं। ऐसे सफ़र में उन लोगों को अपनी नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए।

1321.अगर कोई ख़ाना बदोश, अपने पड़ाव की जगह और जानवरों के लिए चरागाह तलाश करने के लिए सफ़र करे तो अगर उसका सफ़र आठ फ़रसख़ हो और उसका ख़ेमा उसके साथ न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1322.अगर ख़ाना बदोश लोग हज, ज़ियारत, तिजारत या ऐसे ही किसी काम के लिए  सफ़र करें तो उन्हें नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

सातवी शर्त: उसका पेशा सफ़र न हो।  अतः ड्राईवर, पायलेट, कश्ती चलाने वाले, ऊँट या किसी दूसरे जानवर से भाड़े का काम करने वाले लोग, अगर अपने घर का सामान ले जाने के लिए भी सफ़र करें तो पहले सफ़र के अलावा वह नमाज़ पूरी पढ़ेगें, लेकिन अगर पहला सफ़र ज़्यादा लम्बा हो जाये तो उनकी नमाज़ क़स्र होगी।

1323.जिन लोगों का पेशा सफ़र हो, अगर वह अपने पेश के अलावा किसी दूसरे काम के लिए सफ़र करें जैसे हज, ज़ियारत वग़ैरा तो वह भी नमाज़ क़स्र पढ़ेंगे। लेकिन अगर कोई ड्राईवर अपनी गाड़ी को किराये पर ज़ियारत के लिए लेजाये और जिन लोगों ने गाड़ी किराये पर ली है उनके साथ खुद भी ज़ियारत करे तो उसे पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए।

1324.वह इंसान जो सिर्फ़ हज के महीनों में सफ़र का पेशा करता है, उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1325.जिस इंसान का पेशा बार बरदारी हो और वह हाजियों को दूर दूर से मक्के पहुँचाता हो तो अगर वह पूरे साल या साल के ज़्यादा हिस्से में सफ़र में रहे तो उसे नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए।

1326.जो इंसान साल के कुछ ही महीनों में सफ़र को अपना पेशा बनाता हो, जैसे अगर कोई ड्राईवर सिर्फ़ सर्दियों या गर्मियों में मुसाफ़िरों को ढोने का काम करता हो, तो जिस सीज़न में वह अपने पेशे में लगा हो उसमें नमाज़ पूरी पढ़े, बल्कि एहतियाते मुसतहब यह है कि नमाज़ क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1327.जो ड्राईवर सिर्फ़ अपने शहर के अंदर या दो तीन फ़रसख़ की हद में ही काम करता हो अगर वह इत्तेफ़ाक़न आठ फ़रसख़ या उससे ज़्यादा के सफ़र पर चला जाये तो  उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1328.जिस इंसान का पेशा सफ़र हो, अगर वह दस दिन या उससे ज़्यादा अपने वतन में ठहर जाये तो चाहे शुरू से उसका दस दिन ठहरने का इरादा हो या न हो, जब वह दस दिन के बाद पहला सफ़र करे उसमें नमाज़ क़स्र पढ़े।

1329.जिस इँसान का पेशा सफर हो, अगर वह दस दिन या उससे ज़्यादा के इरादे के साथ, अपने वतन के अलावा किसी जगह पर ठहर जाये तो दस दिन के बाद जो पहला सफ़र करे उसमें नमाज़ क़स्र पढ़े, और अगर उसका शुरू से दस दिन ठहरने का इरादा न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1330.जिन लोगों का पेशा सफ़र है जैसे वह स्टूडैंट जो इल्म हासिल करने के लिए दूसरे शहरों में जाते हैं और आम तौर पर जुमे (या इतवार) के दिन अपने घर वापस पलटते हैं, इसी तरह वह टीचर, कारीगर और दूसरे पेशे वाले लोग जो हर दिन अपने वतन से आठ फ़रसख़ या इससे ज़्यादा के फ़ासले पर काम करने के लिए जाते हैं और रात को घर पलटते हैं, उनकी नमाज़ तो क़स्र है, लेकिन रोज़ा सही नही है जब तक वह अपने काम की जगह पर दस दिन ठहरने की निय्यत न करें।   अगर शक करे कि दस दिन क़याम किया था कि नही तो फिर नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए।

1331.जिन लोगों ने अपना कोई वतन न बनाया हो बल्कि हमेशा सैर व सपाटे में लगे रहते हैं उन्हें नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए।

1332.अगर किसी इंसान का पेशा तो सफ़र न हो लेकिन किसी शहर या देहात में उसका कोई ऐसा माल हो जिसे लेने के लिए उसे बार बार वहाँ जाना पड़ता हो तो उसकी नमाज़ क़स्र है।

1333.जो इंसान अपने वतन को छोड़ कर, किसी दूसरी जगह को अपने वतन के लिए चुन ले तो अगर उसका पेशा सफ़र नही है तो इस सफ़र में नमाज़ क़स्र पढ़े।

आठवी शर्त: यह है कि हद्दे तरख़्ख़ुस पर पहुँच जाये। जो इंसान हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुँच जाये, यानी अपने वतन से इतना दूर हो जाये कि उसे न शहर की दीवार दिखाई दे और न कानों में अज़ान की आवाज़ आये। लेकिन हवा में इतना गर्द व ग़ुबार नही होना चाहिए जो देखने और सुनने में रुकावट बने। यह ज़रूरी नही है कि इतनी दूर हो जाये कि मीनार और गुंबद भी नज़र न आये बल्कि इतनी दूर हो जाना काफ़ी है कि शहर की दीवारें साफ़ नज़र न आती हो। जिस जगह इंसान ने दस दिन ठहरने का इरादा किया हो अगर वहाँ से आठ फ़रसख़ जाने का इरादा करके निकलने और  हद्दे तरख़्ख़ुस पर पहुँचने से पहले नमाज़ पढ़ना चाहे तो एहतियाते वाजिब यह है कि पूरी और क़स्र दोनो पढ़े।

1334.अगर सफ़र करने वाला ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ अज़ान की आवाज़ तो न सुनाई देती हो लेकिन शहर की दीवारें नज़र आती हों या इसके बर अक्स (विपरीत) यानी शहर की दीवार न दिखाई देती हो लेकिन अज़ान की आवाज़ सुनाई देती हो तो अगर उस जगह पर नमाज़ पढ़ना चाहे तो एहतियाते वाजिब यह है कि क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1335.जो मुसाफ़िर अपने वतन वापस आ रहा हो तो जब वह अपने वतन की दीवार देख ले या अज़ान की आवाज़ सुन ले तो नमाज़ पूरी पढ़े, इसी तरह वह मुसाफ़िर जो किसी जगह दस दिन रहना चाहता हो जब उस जगह की दीवार देख ले या अज़ान की आवाज़ सुन ले तो एहतियाते वाजिब यह है कि जिस जगह ठहरना हो वहाँ पहुँचने के बाद नमाज़ पढ़े या अगर उसी जगह पर रुक कर नमाज़ पढ़ना चाहे तो क़स्र और पूरी दोनो पढ़े।

1336.अगर कोई शहर इतनी ऊँचाई पर बसा हो कि काफ़ी दूर से नज़र आता हो या इतनी गहराई में हो कि अगर इंसान उससे थोड़ा सा दूर हो जाये तो उसकी दीवारें दिखाई न देती हों। अगर कोई इंसान उस शहर से सफ़र करे तो जब इतनी दूर निकल जाये कि अगर यह शहर इकसार ज़मीन पर बसा होता तो उसकी दीवारें वहाँ से नज़र न आती तो नमाज़ क़स्र पढ़े और इसी तरह अगर घरों की ऊँचाई आम तौर से कम या ज़्यादा हो तो आम अंदाज़े से हिसाब लगाया जाये।

1337.अगर कोई ऐसी जगह से सफ़र करे जहाँ घर और दीवार न हो तो जब ऐसी जगह पहुँच जाये कि अगर उस जगह दीवार होती तो वहाँ से नज़र आती तो नमाज़ क़स्र पढ़े।

1338.अगर कोई किसी बस्तीसे  इतनी दूर हो जाये कि उसे मालूम न हो कि जो आवाज़ सुन रहा है वह अज़ान की आवाज़ है या किसी और चीज़ की तो नमाज़ क़स्र पढ़े, लेकिन अगर वह यहतो समझ जाये कि अज़ान हो रही है मगर उसके अलफ़ाज़  सही समझ में न आ रहे हों तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1339.अगर कोई इतनी दूर हो जाये कि आख़िरी घरों में कही जाने वाली अज़ान की आवाज़ न सुन सकता हो, लेकिन शहर की अज़ान जो आम तौर से ऊँची जगह पर खड़े होकर कही जाती है सुन रहा हो तो उसे नमाज़ क़स्र नही पढ़नी चाहिए।

1340.अगर बस्ती से इतनी दूर पहुँच जाये जहाँ से शहर की वह अज़ान जो आम तौर पर ऊँची जगह पर खड़े हो कर कही जाती है न सुन सके, लेकिन वह अज़ान जो किसी दूसरी बहुत ऊँची जगह पर खड़े हो कर कही जाये उसे सुन सके तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1341.अगर किसी की आँख या कान ग़ैरे मामूली हो या अज़ान की आवाज़ मामूल के मुताबिक़ न हो तो उसे बस्ती से इतनी दूर पहुँचने के बाद नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए जहाँ से औसत बिनाई रखने वाले लोग आबादी की दीवारों को न देख सकें और औसत आवाज़ सुनने वाले लोग आम तौर पर होने वाली अज़ान की आवाज़ न सुन सकें।

1342.अगर किसी को शक हो कि हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुँचा है या नही और नमाज़ पढ़ना चाहे तो नमाज़ पूरी पढ़े, इसी तरह अगर वापसी पर शक करे कि हद्दे तरख़्ख़ुस तक पहुँचा है या नही तो नमाज़ क़स्र पढ़े और जिस जगह पर शक हो जाये वहाँ या तो नमाज़ न पढ़े या क़स्र और पूरी दोनो पढ़े।

1343. वह मुसाफ़िर जो सफ़र के दौरान अपने वतन से गुज़रे जब वह ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ से वतन की दीवार दिखाई देती हों या अज़ान की आवाज़ सुनाई देती हो तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1344.मुसाफ़िर अगर सफ़र के दौरान वतन पहुँच जाये तो जब तक वतन में है नमाज़ पूरी पढ़े लेकिन अगर वहाँ से आठ फ़रसख़ जाना चाहे या चार फ़रसख़ की लौट फेर करना चाहे तो हद्दे तरख़्खुस पर पहुँच कर नमाज़ क़स्र पढ़े।

1345.वतन दो तरह का होता है। 1- अस्ली वतन, यानी वह जगह जो माँ बाप या उनमें से किसी एक का वतन हो, चाहे वह वहाँ पैदै हुआ हो या नहुआ हो। 2- ग़ैरे अस्ली वतन  (नक़ली वतन), यानी वह जगह जिसे इंसान अपने इख़्तियार से वतन के तौर पर चुने यह दो तरह से मोहक़्क़क़ होता है।

क) किसी जगह को अपने रहने के लिए चुने और इरादा करे कि पूरी ज़िन्दगी वहीँ रहना है।

ख) किसी जगह को अपने रहने के लिए चुने और वहाँ से किसी दूसरी जगह जाने का इरादा न हो और वहाँ पर इतना रहे कि आम तौर पर लोग उसे वहीं का रहने वाला मानने लगें। अतः अगर कोई किसी जगह पर एक लम्बे अर्से तक रहने के बाद किसी दूसरी जगह जगह जाकर बसने का इरादा रखता हो तो वह उसका वतन नही माना जायेगा।  

1346.जो इंसान दो जगहो पर रहता हो जैसे छः महीने एक शहर में रहता हो और छ: महीने दूसरे शहर में तो वह दोनों उसके वतन होगें, लेकिन अगर दो से ज़्यादा जगहों को रहने के लिए चुने तो एहतियाते वाजिब यह है कि दो के बाद वाली जगहों पर नमाज़ क़स्र भी पढ़े और पूरी भी।

1347.अस्ली वतन और ग़ैरे अस्ली वतन के अलावा किसी भी जगह पर अगर दस दिन ठहरने का इरादा न करे तो उसकी नमाज़ क़स्र होगी चाहे उसकी वहाँ पर कोई मिलकियत हो या न हो, चाहे वहाँ छ: महीने रहा हो या न रहा हो।

1348.अगर किसी ऐसी जगह पहुँच जाये जो कभी उसका अस्ली वतन रहा हो और अब उसको छोड़ दिया हो या ऐसी जगह पहुँचे जो उसका ग़ैरे अस्ली वतन था और अब वहाँ रहने का इरादा न हो तो दोनों जगहों पर नमाज़ क़स्र पढ़े चाहे अभी तक रहने के लिए कोई अन्य वतन न चुना हो।

1349.अगर मुसाफ़िर का किसी जगह पर लगातार दस दिन रहने का इरादा हो या उसको मालूम हो कि मजबूरन वहाँ दस दिन रुकना पड़ेगा तो उसे वहाँ पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए।

1350.अगर मुसाफ़िर किसी जगह पर 240 घंटे या उससे ज़्यादा छहरना चाहता हो तो क़स्दे इक़ामत मोहक़्क़क़ हो जायेगा उसे चाहिए कि वहाँ पर नमाज़ पूरी पढ़े। अतः अगर कोई सुबह के दस बजे किसी शहर में दाख़िल हो तो इस सूरत में क़स्दे इक़ामत मुहक़्क़क़ होगा जब उसका इरादा ग्यारहवें दिन दस बजे तक उस शहर में रहना का इरादा हो। लेकिन अगर वह सुबह की अज़ान के वक़्त उस शहर में दाख़िल हो तो 240 घंटे उस शहर में गुज़ारना ज़रूरी नही है, बल्कि अगर वह दसवें दिन सूरज के छुपने तक वहाँ रहे तो काफ़ी है। इस सूरत में उसे चाहिए कि वहाँ पर नमाज़ पूरी पढ़े।     

1351.जो मुसाफिर किसी जगह पर दस दिन रहना चाहता है तो वह वहाँ पर इस सूरत में ही नमाज़ पूरी पढ़ेगा जब वह एक ही जगह रहने का इरादा करे, अतः अगर वह दस दिन दो जगहों पर रहने का इरादा करे तो उसकी नमाज़ क़स्र होगी जैसे अगर कोई इरादा करे कि दस दिन नजफ़ और कूफ़े में रहूँगा तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी होगी।

1352.अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन ठहरना चाहता हो और उसका शुरु से ही यह इरादा हो कि इन दस दिनों के दौरान आस पास भी जायेगा तो वह जिन जगहों पर जाना चाहता है अगर वह उस बस्ती के ताबे हैं (यानी उस बस्ती का हिस्सा समझी जाती हैं) जैसे आस पास के बाग़ तो वह नमाज़ पूरी पढ़े। अगर वह जगहें उसके आस पास की न हों और शरई सफ़र से कम की दूरी पर हों तो अगर वह वहाँ हर दिन भी एक या दो घंटे के लिए जाये तो भी नमाज़ पूरी पढ़े, लेकिन अगर वह दिन का ज़्यादा हिस्सा वहाँ गुज़ार कर रात को उस जगह पर पलटे तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ क़स्र भी पढ़े और पूरी भी और अगर रमज़ान का महीना हो तो रोज़े रखे और बाद में उनकी क़ज़ा भी करे।  

1353.अगर मुसाफ़िर का इरादा किसी जगह पर साफ़ तौर पर दस दिन ठहरने का न हो, मसलन उसका इरादा यह हो अगर मेरा दोस्त आ जायेगा या कोई अच्छा मकान मिल जायेगा तो दस दिन ठहरूँगा तो ऐसी सूरत में उसकी नमाज़ क़स्र होगी।

1354.अगर मुसाफ़िर का इरादा किसी जगह पर दस दिन ठहरने का हो, लेकिन उसे यह भी एहतेमाल हो कि हो सकता है कि यहाँ रहने में कोई रुकावट पैदा हो जाये तो अगर आम तौर पर लोग इस क़िस्म के एहतेमाल को अहमिय्यत न देते हों तो उसे वहाँ पर पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए।

1355.अगर मुसाफ़िर को मालूम हो कि महीने के ख़त्म होने में दस या ज़्यादा दिन बाक़ी हैं और वह किसी जगह पर महीने के आख़िर तक ठहरने का इरादा करे तो उसे वहाँ पूरी नमाज़ पढ़नी चाहिए, लेकिन अगर उसे मालूम न हो कि महीने के ख़त्म होने में कितने दिन बाक़ी रह गये हैं और वह महीने के आख़िर तक ठहरने का इरादा करे तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, चाहे महीने के ख़त्म होने में दस या ज़्यादा बाक़ी हों।

1356.अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह पर दस दिन ठहरने का इरादा करे और एक चार रकअती नमाज़ पढ़ने से पहले वहाँ रहने का इरादा छोड़ दे या ठहरे या न ठहरे की हालत में हो तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, लेकिन अगर एक चार रकअती नमाज़ पढ़ लेने के बाद ठहरने का इरादा छोड़ दे तो जब तक वहाँ रहे नमाज़ पूरी पढ़े।

1357.अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा करते हुए रोज़ा रख ले और ज़ोहर के बाद वहाँ रहने का इरादा छोड़ दे तो अगर वह एक चार रकअती नमाज़ वहाँ पढ़ चुका है तो उसका रोज़ा सही है और जब तक वहाँ रहे अपनी नमाज़ें पूरी पढ़े और अगर वहाँ एक चार रकअती नमाज़ न पढ़ी हो तो उसका उस दिन का रोज़ा तो सही है, लेकिन बाद वाले दिनों में रोज़ा नही रख सकता और नमाज़ें भी क़स्र पढ़ेगा।

1358.अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा करे और बाद में वहाँ रहने का इरादा छोड़ दे और शक करे कि वहाँ ठहरने का इरादा चार रकअती नमाज़ पढ़ने के बाद छोड़ा या उससे पहले, तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए।

1359.अगर मुसाफ़िर क़स्र की निय्यत से नमाज़ शुरु करे और नमाज़ पढ़ते हुए ही वहां दस दिन या ज़्यादा ठहरने का इरादा करले तो उस नमाज़ को चार रकअत पढ़े।

1360.अगर किसी जगह दस दिन या ज़्यादा ठहरने का इरादा हो और चार रकअती नमाज़ पढ़ते वक़्त वहाँ ठहरने का इरादा बदल जाये तो अगर अभी तीसरी रकअत शुरू न की हो तो नमाज़ को क़स्र पढ़ कर ख़त्म कर दे और बाक़ी नमाज़ों को भी क़स्र पढ़े और अगर तीसरी रकअत के रुकूउ में पहुँच गया है तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस नमाज़ को चार रकअत पढ़ कर ही तमाम करे और उसके बाद उसी नमाज़ को क़स्र भी पढ़े और जब तक वहाँ रहे इस एहतियात पर अमल करता रहे।

1361.जिस ने किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा किया हो, अगर वह वहाँ दस दिन से ज़्यादा ठहर जाये तो जब तक वहाँ से सफ़र न करे नमाज़ पूरी पढ़ता रहे और दोबारा दस दिन ठहरने की निय्यत करना ज़रूरी नही है।

1362.जिस मुसाफ़िर ने किसी जगह पर दस दिन ठहरने का इरादा किया हो उसे वहाँ वाजिब रोज़े रखने चाहिए। इसी तरह वह वहाँ मुसतहब रोज़े भी रख सकता है और नमाज़े जुमा, ज़ोहर, अस्र व इशा की नाफ़ेला नमाज़ें भी पढ़ सकता है।

1363.जिस मुसाफ़िर ने किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा किया हो अगर वह वहाँ से चार फऱसख़ से कम की दूरी पर जाकर वापस आजाये तो नमाज़ पूरी पढ़े।

1364.जिस मुसाफ़िर ने किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा किया हो अगर वह एक चार रकअती नमाज़ पढ़ने के बाद वहाँ से एक ऐसी जगह जाकर दस दिन ठहरना चाहे जो आठ फ़रसख़ से कम हो तो रास्ते में और वहाँ पहुँच कर नमाज़ पूरी पढ़े, लेकिन अगर वह जगह आठ फ़रसख़ या उससे ज़्यादा हो तो रास्ते में नमाज़ क़स्र पढ़े और वहां पहुँच कर अगर दस दिन ठहरने का इरादा हो तो वहाँ नमाज़ पूरी पढ़े।

1365.जिस मुसाफ़िर ने किसी जगह दस दिन ठहरने का इरादा कर लिया हो अगर एक चार रकअती नमाज़ पढ़ने के बाद वहाँ से एक ऐसी जगह जाना चाहे जो चार फ़रसख़ से कम हो तो अगर वह मुरद्दद हो कि अपने रहने की जगह पर पलटेगा या नही या पलटने से बिल्कुल ग़ाफ़िल हो तो जाने के वक़्त से लौटने तक और लौटने के बाद नमाज़ पूरी पढ़े।  लेकिन अगर उसका उस जगह पर पलटने का इरादा न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि रास्ते में और वहाँ पहुँचकर नमाज़ क़स्र भी पढ़े और पूरी भी। लेकिन वहाँ से लौटते वक़्त नमाज़ क़स्र है। और अगर वहाँ से दूसरी जगह की दूरी चार फ़रसख़ से कम न हो तो अपनी जगह से जाते वक़्त अगर नमाज़ क़स्र पढ़े तो काफ़ी है।

1366.अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह पर दस दिन ठहरने का इरादा, यह सोचते हुए करे कि उसके दोस्त भी वहाँ दस दिन तक ठहरेंगे और एक चार रकअती नमाज़ पढ़ने के बाद उसे मालूम हो कि उसके दोस्तों ने वहाँ दस दिन ठहरने की निय्यत नही की है तो अगर वह भी अपने इरादे को छोड़ दे तो जब तक वहाँ रहेगा नमाज़ पूरी पढ़गा।

1367.अगर कोई मुसाफ़िर आठ फ़रसख़ पहुँचने के बाद किसी जगह पर तीस दिन तक ठहरे और उन तीस दिनों में ठहरने या न ठहरने के बीच मुरद्दद रहे (यानी यह सोचे कि यहाँ ठहरूँ या न ठहरूँ) तो उन तीस दिनों में उसकी नमाज़ क़स्र है, लेकिन अगर तीस दिन गुज़र जाने के बाद वह वहाँ थोड़ा भी रहे तो नमाज़ पूरी पढ़ेगा। और अगर आठ फ़रसख़ पहुँचने से पहले ही, आगे जाने के बारे में मुरद्दद हो जाये (यानी सोचे कि आगे जाऊँ या न जाऊँ) तो जिस वक़्त से मुरद्दद हो उसी वक़्त से नमाज़ पूरी पढ़े।

1368.अगर कोई मुसाफ़िर किसी जगह नौ दिन या उससे कम ठहरने का इरादा करे और जब वह मुद्दत पूरी हो जाये तो फिर इतने ही दिनों का क़स्द कर ले तो इस तरह वहाँ तीस दिन तक उसकी नमाज़ क़स्र है, लेकिन इकत्तीसवें दिन उसे नमाज़ पूरी पढ़नी चाहिए, चाहे उस दिन वह वहाँ सिर्फ़ एक नमाज़ के वक़्त के बराबर ही रुके।

1369.जो मुसाफ़िर तीस दिन तक मुरद्दद रहा हो वह इस सूरत में ही नमाज़ पूरी पढ़ेगा जबकि वह तीस दिन एक ही जगह रहा हो अतः अगर वह इस मुद्दत कुछ दिनों इस जगह और कुछ दिनों किसी दूसरी जगह रहा है तो तीस दिन के बाद भी उसे नमाज़ क़स्र ही पढ़नी चाहिए।

क़स्र के मुख़्तलिफ़ मसाइल

1370.मुसाफ़िर को इख़्तियार है कि वह मक्के, मदीने और मस्जिदे कूफ़ा में अपनी नमाज़ को क़स्र या पूरी पढ़े, और इन तीनों जगहों पर नई व पुरानी इमारत का फ़र्क़ नही है। इसी तरह मुसाफ़िर को इख़्तियार है कि वह सैयदुश शुहादा हज़रत इमाम हुसैन (अ) के हरम बल्कि हरम के साथ मिली हुई मस्जिद में भी अपनी नमाज़ को पूरी या क़स्र पढ़ सकता है।

1371.जिसको यह मालूम हो कि वह मुसाफ़िर है और यह भी जानता हो कि मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, अगर वह जान बूझ कर, ऊपर बयान की गई चार जगहों के अलावा, किसी जगह पर नमाज़ पूरी पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है। इसी तरह अगर भूल जाये कि मुसाफ़िर की नमाज़ क़स्र है और पूरी पढ़ले तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ दोबारा पढ़े और अगर नमाज़ का वक़्त गुज़र चुका हो तो उसकी कज़ा पढ़े।  

1372.जो इंसान अपने मुसाफ़िर होने और मुसाफ़िर की नमाज़ क़स्र होने के बारे में जानता हो, अगर वह तवज्जो किये बग़ैर अपनी आदत के मुताबिक़ नमाज़ पूरी पढ़ले तो उसकी नमाज बातिल है। इसी तरह अगर वह यह भूल जाये कि वह मुसाफिर है या मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए और नमाज़ पूरी पढ़ले तो इस सूरत में अगर नमाज़ का वक़्त बाक़ी हो तो नमाज़ दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र चुका हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसकी क़ज़ा करे।

1373.जो मुसाफिर यह न जानता हो कि मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, अगर वह पूरी नमाज़ पढ़ ले तो उसकी नमाज़ सही है।

1374.जिस मुसाफ़िर को यह तो मालूम हो कि मुसाफ़िर को नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए लेकिन वह उसके जुज़ियात को न जानता हो, मसलन उसको यह मालूम न हो कि आठ फ़रसख़ सफ़र करने पर नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, और वह इस सूरत में नमाज़ पूरी पढ़ ले तो अगर नमाज़ का वक़्त बाक़ी हो तो उसे चाहिए कि दोबारा क़स्र की निय्यत से पढ़े और अगर वक़्त न हो तो उस नमाज़ को क़स्र की निय्यत से क़ज़ा पढ़े।

1375.जो मुसाफ़िर यह जानता हो कि सफ़र में नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, अगर वह यह गुमान करते हुए कि उसका सफ़र आठ फरसख़ से कम है, नमाज़ पूरी पढ़ले और बाद में उसे मालूम हो कि उसका सफ़र आठ फ़रसख़ था तो जिस नमाज़ को उसने पूरा पढ़ा है उसे क़स्र की निय्यत से दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र चुका हो तो क़स्र की निय्यत से क़ज़ा पढ़े।

1376.अगर कोई यही भूल जाये कि मैं मुसाफ़िर हूँ और नमाज़ पूरी पढ़ले तो अगर वक़्त के अंदर याद आ जाये तो क़स्र की निय्यत से दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र चुका हो तो उस नमाज़ की क़ज़ा उस पर वाजिब नही है, लेकिन अगर ऐसा हुक्म को भूलने की वजह से था तो एहतियाते वाजिब यह है कि वक़्त गुज़रने के बाद भी उसकी क़ज़ा करे।

1377.जिस पर पूरी नमाज़ पढ़नी वाजिब हो अगर वह जान बूझ कर या भूले से नमाज़ क़स्र पढ़ले तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1378.अगर चार रकअती नमाज़ पढ़ते हुए याद आये कि वह तो मुसाफ़िर है या मुतवज्जे हो जाये कि उसका सफ़र आठ फ़रसख़ है तो अगर अभी तीसरी रकअत के रुकूउ में न गया हो तो नमाज़ को दो रकअत पर तमाम करदे। और अगर तीसरी रकअत के रुकूउ में चला गया है तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर एक रकअत के लिए भी वक़्त बाक़ी हो तो नमाज़ को क़स्र की निय्यत से पढ़े और अगर वक़्त बाक़ी न हो तो क़स्र की निय्यत से क़ज़ा पढ़े।

1379.जो इंसान नमाज़े मुसाफ़िर की कुछ ख़ासियतों को न जानता हो, मसलन न जानता हो कि जो इंसान चार फ़रसख़ तक जाये और उसी दिन या रात को पलट आये तो उसे नमाज़ क़स्र पढ़नी चाहिए, अब अगर वह किसी चार रकअती नमाज़ को चार रकअत की निय्यत से शुरु करे और तीसरी रकअत के रुकू में जाने से पहले उसे मसला मालूम हो जाये तो नमाज़ दो रकअत पर ख़त्म कर दे और अगर रुकूउ में मुतवज्जे हो तो उसकी नमाज़ बातिल है। अब अगर एक रकअत नमाज़ पढ़ने के बराबर भी वक़्त हो तो नमाज़ को क़स्र की निय्यत से दोबारा पढ़े और अगर वक़्त ख़त्म हो गया हो तो क़ज़ा पढ़े।

1380.जिस मुसाफ़िर को पूरी नमाज़ पढ़नी हो अगर वह मसला न जानने की वजह से क़स्र की निय्यत से नमाज़ शुरू करदे और नमाज़ के दौरान उसे मसला मालूम हो जाये तो उसे चाहिए कि वह उस नमाज़ को चार रकअत पढ़े और एहतियाते मुसतहब यह है कि नमाज़ तमाम होने के बाद उसी नमाज़ को दोबारा चार रकअत फिर पढ़े।

1381.अगर कोई मुसाफ़िर, सफ़र में नमाज़ न पढ़े और क़ज़ा होने से पहले अपने वतन या ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ दस दिन ठहरने का इरादा हो तो वहाँ उस नमाज़ को पूरा पढ़े। इसी तरह अगर कोई अव्वले वक़्त नमाज़ न पढ़े और सफ़र पर रवाना हो जाये तो सफ़र में उस नमाज़ को क़स्र पढ़े।

1382. जिस मुसाफ़िर की नमाज़ क़स्र हो अगर उसकी ज़ोहर, अस्र या इशा की नमाज़ सफ़र में छुट गई हो तो उन छुटी हुई नमाज़ो की क़ज़ा भी क़स्र ही पढ़ी जायेगी चाहे उनको अपने वतन में ही क्यों न पढ़े। इसी तरह अगर इन तीनों में से कोई नमाज़ वतन में छुटी हो तो उसकी कज़ा पूरी पढ़ी जायेगी चाहे सफ़र में ही क्यों न पढ़े।

1383.मुसाफ़िर के लिए मुसतहब है कि हर क़स्र नमाज़ के बाद तीस मर्तबा सुबहान अल्लाहि, वलहम्दु लिल्लाहि, वला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर, पढ़े।