क़ज़ा नमाज़

1384.अगर कोई इंसान अपनी वाजिब नमाज़ को उसके वक़्त पर न पढ़ सके तो उसे उसकी क़ज़ा पढ़नी चाहिए, चाहे उसकी नमाज़ सोने या मस्ती की वजह से क़ज़ा हुई हो, लेकिन रोज़ाना की पाँच वक़्त की वह नमाज़ें जिन्हें औरत ने हैज़ व निफ़ास की हालत में न पढ़ा हो उनकी क़ज़ा वाजिब नही है।

1385.अगर नमाज़ का वक़्त गुज़रने के बाद मालूम हो कि जो नमाज़ पढ़ी थी नमाज़ बातिल थी तो उस नमाज़ को क़ज़ा पढ़े।

1386.अगर बच्चा नमाज़ का वक़्त ख़त्म होने से पहले बालिग़ हो जाये, चाहे नमाज़ में एक रकअत का वक़्त ही बाक़ी हो, तो उस पर उस नमाज़ को अदा पढ़ना वाजिब है और अगर न पढ़े तो उसकी क़ज़ा वाजिब है। इसी तरह अगर कोई औरत हैज़ या निफ़ास की हालत में हो और नमाज़ का वक़्त ख़त्म होने से पहले उसका उज़्र ख़त्म हो जाये तो अगर ग़ुस्ल के बाद एक रकअत का भी वक़्त बाक़ी हो तो उस नमाज़ को अदा पढ़े और अगर न पढ़े तो उसकी क़ज़ा वाजिब है।

1387.जिस इंसान पर जुमे की नमाज़ वाजिब हो, अगर वह उसे वक़्त पर न पढ़ सके तो उसे ज़ोहर की नमाज़ पढ़नी चाहिए और अगर ज़ोहर की नमाज़ भी न पढ़ सके तो उस पर उसकी क़ज़ा वाजिब है।

1388.वाजिब नमाज़ की क़ज़ा को दिन रात में जब चाहे पढ़ सकता है चाहे सफ़र में हो या हज़र में, लेकिन अगर वतन में सफ़र की क़ज़ा नमाज़ें पढ़ना चाहे तो क़स्र पढ़े। इसी तरह अगर सफ़र में वतन में क़ज़ा होने वाली नमाज़ें पढ़े  तो उन्हें पूरी ही पढ़े।

1389.अगर नमाज़ ऐसी जगह क़ज़ा हुई हो जहाँ इंसान को पूरी या क़स्र पढ़ने का इख़्तियार हो जैसे मस्जिदुल हराम, तो अगर उस नमाज़ की क़ज़ा उसी जगह पर पढ़ना चाहे तो उसे इख़्तियार है कि चाहे क़स्र पढ़े या पूरी, लेकिन अगर उस जगह के अलावा कहीँ और पढ़े तो एहतियाते वाजिब यह है कि क़स्र पढ़े।

1390.जिसके ज़िम्मे कोई क़ज़ा नमाज़ हों, उसे उसके पढ़ने में सुस्ती नही करनी चाहिये, लेकिन फ़ौरन पढ़ना वाजिब नही है।

1391.अगर कोई अदा नमाज़ पढ़ना चाहता हो और उसी दिन की कोई क़ज़ा नमाज़ भी उसके ज़िम्मे हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि पहले उस क़ज़ा नमाज़ को पढ़े और बाद में अदा को।

1392.जिसके ज़िम्मे कुछ क़ज़ा नमाज़ें हों वह मुसतहब नमाज़ें पढ़ सकता है।

1393.एहतियाते वाजिब यह है कि क़ज़ा नमाज़ों में तरतीब की रिआयत की जाये, जो इंसान अपनी क़ज़ा नमाज़ों की तरतीब को जानता हो उसके लिए ज़रूरी है कि जिन अदा नमाज़ों में तरतीब ज़रुरी है, जैसे नमाज़ ज़ोहर व अस्र तो उनकी क़ज़ा में भी तरतीब की रिआयत की जाये, यानी पहले ज़ोहर पढ़ी जाये उसके बाद अस्र।

1394.अगर कोई इंसान रोज़ाना की पाँच नमाज़ों के अलावा, कुछ अन्य नमाज़ों की क़ज़ा पढ़ना चाहे जैसे नमाज़े आयात, या रोज़ाना की पाँच नमाज़ों में से कोई नमाज़ और कुछ क़ज़ा नमाज़े उसके अलावा पढ़ना चाहे तो उनको तरतीब के साथ पढ़ना ज़रूरी नही है।

1395.जिसको यह मालूम न हो कि जो नमाज़ें क़ज़ा हुई हैं उनमें कौनसी पहले और कौनसी बाद में क़ज़ा हुई है तो ज़रूरी नही है कि उन्हें इस तरह पढ़े कि तरतीब हासिल हो जाये, बल्कि वह जिसे चाहे पहले पढ़ सकता है।

1396.अगर किसी मय्यित की क़ज़ा नमाज़े पढ़ना चाहे और उसके वारिसो को  उसकी क़ज़ा नमाज़ों की तरतीब मालूम हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि क़ज़ा नमाज़ों को उसी तरतीब से पढ़ा जाये। इसी वजह से कई लोगों को एक वक़्त में मय्यित की क़ज़ा नमाज़े पढ़वाने के लिए अजीर बनाना सही नही है, लेकिन अगर कई लोगों से पढ़वाई जाये तो उनमें से हर एक के लिए एक वक़्त मुऐयन करना चाहिए, लेकिन अगर क़ज़ा नमाज़ों की तरतीब मालूम न हो तो यह शर्त ज़रूरी नही है।

1397.जिसकी कई नमाज़ें क़ज़ा हों और वह उनकी तादाद (संख़्या) न जानता हो मसलन उसको मालूम न हो कि चार नमाज़ें क़ज़ा है या पाँच तो अगर वह चार दिन की पढ़ले तो काफ़ी है, लेकिन अगर उसको पहले उनकी तादाद मालूम हो और बाद में भूल गया हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि ज़्यादा तादाद को पढ़े, यानी पाँच क़ज़ा नमाज़े पढ़े।

1398.जब तक इंसान ज़िन्दा है, कोई उसका नायब बनकर उसकी क़ज़ा नमाज़ें नही पढ़ सकता, चाहे वह अपनी क़ज़ा नमाज़ें पढ़ने से मजबूर भी हो।

1399.क़ज़ा नमाज़ों को जमाअत के साथ पढ़ा जा सकता है चाहे इमामे जमाअत की नमाज़ अदा हो या क़ज़ा। यह भी ज़रूरी नही है कि दोनो एक ही नमाज़ पढ़े जैसे अगर कोई इंसान अपनी सुबह की क़ज़ा नमाज़ को ज़ोहर या अस्र की जमाअत के साथ पढ़े तो कोई हरज नही है।

1400.मुस्तहब है कि जो बच्चा अच्छे बुरे को समझता हो उसे नमाज़ और दूसरी इबादतों की आदत डालनी चाहिए। बल्कि मुसतहब है कि उसे क़ज़ा नमाज़े पढ़ने का भी शौक दिलाया जाये।

माँ, बाप की क़ज़ा नमाज़ें बड़े बेटे पर वाजिब हैं

अगर बाप किसी मजबूरी की वजह से अपनी नमाजों को न पढ़ सका हो तो उसके मरने के बाद बड़े बेटे पर वाजिब है की उनको क़ज़ा पढ़े या किसी से पढ़वाये। बल्कि अगर उसने वह नमाज़े अल्लाह की नाफ़रमानी की वजह से भी छोड़ी हो तो भी एहतियाते वाजिब यही है कि उन्हें या तो बड़ा बेटा पढ़े या किसी से पढ़वाये। इसी तरह अगर बाप ने बीमारी या सफ़र की वजह से रोज़े न रखे हो और वह अपनी ज़िन्दगी में उन्हें रख सकता हो मगर न रखे हों तो बड़े बेटे पर वाजिब है कि बाप के मरने के बाद उनकी क़ज़ा करे।

1401.एहतियाते वाजिब यह है कि माँ की क़ज़ा नमाज़ों और रोज़ों को भी बड़ा बेटा अदा करे।

1402.बड़े बेटे पर सिर्फ़ माँ बाप की ज़ाती क़ज़ा नमाज़ें वाजिब हैं, लेकिन अगर कुछ नमाज़ें उजरत की वजह से उन पर वाजिब हुई हों या उनके माँ बाप की क़ज़ा नमाज़ें उनके ज़िम्मे हों तो उनकी क़ज़ा बड़े बेटे पर वाजिब नही है।

1403.मय्यित की क़ज़ा नमाज़ें पोते पर वाजिब नही, चाहे दादा की मौत के वक़्त वही सबसे बड़ा हो और एहतियाते वाजिब यह है कि अगर मय्यित के कोई और औलाद न हो तो वही मय्यित की क़ज़ा नमाज़ों को पढ़े।

1404.अगर माँ या बाप की मौत के वक़्त बड़ा बेटा नाबालिग़ हो तो बालिग़ होने के बाद माँ बाप की क़ज़ा नमाज़ें पढ़े और अगर बालिग़ होने से पहले मर जाये तो दूसरे लड़को पर माँ बाप की क़ज़ा नमाज़ पढ़ना वाजिब नही है।

1405.अगर मय्यित का एक लड़का उम्र के लिहाज़ से बड़ा हो और दूसरा बालिग़ होने के एतेबार से तो नमाज़ की क़ज़ा उस पर वाजिब है जो उम्र के लिहाज़ से बड़ा हो।

1406.यह ज़रूरी नही है कि बड़ा बेटा मय्यित का वारिस भी हो, बल्कि अगर क़त्ल या कुफ़्र की वजह से वह इर्स से महरुम हो गया हो तो भी क़ज़ा उसी पर वाजिब है।

1407.अगर यही मालूम न हो कि बड़ा बेटा कौनसा है तो नमाज़ और रोज़ों की क़ज़ा किसी पर भी वाजिब नही है, लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह माँ बाप की क़ज़ा नमाज़ों व रोज़ों को आपस में बाँट लें या क़ुरे के ज़रिये किसी एक को उन्हें अदा करने के लिए मुऐयन करलें।

1408.अगर मय्यित ने वसीयत की हो कि उसकी क़ज़ा नमाज़ों व रोज़ों के लिए किसी को अजीर बनाया जाये तो अगर वह अजीर नमाज़ों और रोज़ों को सही तौर पर अदा करदे तो उसके बाद बड़े बेटे पर कुछ वाजिब नही है, इसी तरह अगर कोई दूसरा इंसान मय्यित की क़ज़ा नमाज़ों और रोज़ों को बग़ैर उजरत अदा कर दे तो भी बड़े बेटे पर कुछ वाजिब नही है।

1409.बड़े बेटे को क़ज़ा नमाज़ें अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ पढ़नी चाहिए, लिहाज़ा अगर वह सुबह, मग़रिब और इशा की क़ज़ा नमाज़ें अपनी माँ के लिए भी पढ़ रहा तो भी उन्हें बुलंद आवाज़ से पढ़नी चाहिए।

1410.अगर दो बेटे जुड़वा पैदा हुए हों तो जो बच्चा पहले पैदा हुआ है वह बड़ा कहलायेगा चाहे दूसरे का नुतफ़ा उससे पहले मुनअक़िद हुआ हो।

1411.अगर कोई इंसान नमाज़ के वक़्त के बीच के हिस्से में इतनी देर गुज़ारने के बाद मर जाये जिसमें वह नमाज़ पढ़ सकता था तो उस नमाज़ की क़ज़ा बड़े बेटे पर वाजिब होगी।

1412.अगर मय्यित का कोई लड़का न हो तो मय्यित की क़ज़ा नमाज़े किसी दूसरे पर वाजिब नही हैं। अगर मय्यित ने अपनी क़ज़ा नमाज़ें पढ़वाने के लिए वसीयत की हो तो उसके माल का तीसरा हिस्सा इस काम के लिए खर्च किया जाये।

1413.अगर बड़ा बेटा माँ बाप की कज़ा नमाज़े पढ़ने या रोज़े रखने के क़ाबिल होने से पहले ही मर जाये तो उससे छोटे बेटे को उनकी क़ज़ा करनी चाहिए।