हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) और ज्ञान प्रसार

17 रबियुल अव्वल सन् 83 हिजरी की पूर्व संध्या थी। अरब की तपती हुई रेत ठंडीs हो चुकी थी। हवा के हल्के हल्के झोंके पुष्प वाटिकाओं से खुशबूओं को उड़ा कर वातावरण को सुगन्धित कर रहे थे। मदीना शहर चाँदनी में नहाया हुआ था। रेत के कणँ चाँद की रौशनी में इस तरह चमक रहे थे कि इंसान को ज़मीन पर कहकशाँ का गुमान होता था। पेड़ों की शाखओं पर चिड़ियें गुन गान में लीन थीं। यह ऐस दृष्य था जिसको देखने के बाद ऐसा आभास होता था कि कुदरत ने यह सब इंतेज़ाम किसी के स्वागत में किये हैं। सूरज अभी पश्चिम की यात्रा पूरी कर के पूरब की ओर पलटा भी नही था कि इसी बीच अज्ञानता के अँधकार को दूर करने और ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए हाशमी ख़ानदान में इमामत का एक और फूल खिला। इस फूल का खिलना था कि संसार महक उठा । आने वाले ने आँखें खोली तो सिर को सजदा-ए-इलाही में रख दिया। यह देख कर बच्चे की माता उम्मे फ़रवा खुश हुईं तो पिता इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने अल्लाह का शुक्र अदा किया। दादा ज़ैनुल आबेदीन को खबर मिली तो बच्चे को देखने के लिए उम्मे फ़रवा के कमरे में तशरीफ़ लाये और बच्चे को गोद में उठा कर चूमने लगे। बच्चे ने भी दादा की गोद में हम्दे इलाही कर के अपने  सादिक़ होने का सबूत पेश किया।

इस तरह सादिक़े आले मुहम्मद दादा की गोद में परवान चढ़ने लगे। और जब बचपन की समंय सीमा को पार कर के जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखा तो अपने पिता की शैक्षिक कक्षाओ में सम्मिलित होने लगे। अब जो मासूम ने मासूम से ज्ञान प्राप्त किया तो नतीजे में ज्ञान का वह दीपक प्रज्वलित हुआ जिस ने न केवल अरब के रेगिस्तान को रौशन किया, बल्कि उसकी रौशनी पूरब से पश्चिम तक पूरी इंसानियत को प्रकाशित करती चली गई। आपके विचारों से अपके ज़माने के बड़े बड़े दार्शनिक अचम्भित हो कर रह गये। शायद इसी बिना पर साहिबे इब्ने इबाद ने कहा था कि “रसूले अकरम के बाद इस्लाम में इमाम सादिक़ से बड़ा कोई ज्ञानी नही हुआ।” आइये ज़रा इस कथन पर ग़ौर करते हैं। साहिबे इब्ने इबाद का यह कहना कि रसूले अकरम के बाद इस्लामी समाज में इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से बड़ा कोई ज्ञानी नही हुआ, क्या यह इस बात को सिद्ध करता है कि अन्य इमामों के पास इतना ज्ञान नही था ? नही ऐसा नही है कि अन्य इमाम ज्ञान के क्षेत्र में आप से कम थे। बल्कि हक़ीक़त यह है कि जितना ज्ञान इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के सीने में था उतना ही ज्ञान अन्य  इमामों के पास भी था। बस केवल यह फ़र्क़ है कि अन्य इमामों को उनके ज़माने के हालात ने इतनी फुरसत नही दी कि वह अपने ज्ञान को दूसरों पर व्यक्त कर पाते। क्योंकि अगर हम बनी उमैया के काल को देखते हैं तो अहले बैत व उनके शियों के खून से उनकी तलवारे रंगीन नज़र आती हैं। और अगर बनी अब्बास के ज़माने का जायज़ा लेते हैं तो इतिहास उनके ज़ुल्म का कलमा पढ़ता दिखाई देता है। दोनों में से कोई भी ज़माना रहा हो हालत यह थी कि क़ानून नाम की कोई चीज़ नही थी। बादशाह की ज़बान से निकले हुए शब्द आख़री हर्फ़ हुआ करते थे। दीन के मुफ़्ति व इस्लामी शरियत के क़ाज़ी अपनी इज़्ज़त व जानो माल का सुरक्षा इस बात में समझते थे कि अपने समय के बादशाह के इशारों को समझे और कोई आपत्ति किये बिना उसके अनुसार कार्य करे। अत्याचारी शासक के जज़बात व एहसासात के अनुसार फ़तवे जारी करें वरना कोड़े खाने के लिए तैयार रहें। यह वह ज़माना था जब आले मुहम्मद का नाम लेने वाले लोगों के बच्चों को यतीम कर दिया जाता था और उनके घरों को आग लगा दी जाती थी। अब आप खुद इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि क्या इस हालत में कोई इमाम ज्ञान का प्रचार या प्रसार कर सकता था ?

हाँ अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल से इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम को उस समय इमामत सौंपी जब अमवी दौर आख़री हिचकियाँ ले रहा था, उनकी शानो शौकत मिट्टी  में मिल रही थी, उनका अधिपत्य  समाप्त हो रहा था और अत्याचारी तख़्तो ताज ठोकरों का खिलौना बना हुआ था। बनी उमैया के अधिकतर ज़ालिम बादशाह अपने ज़ुल्म व अत्यचार की कहानी ख़त्म कर के ज़मीन के कीड़ों की खुराक बन चुके थे और मौजूदा शासक अपने ज़ुल्म की वजह से आम लोगों को अपने हाथ से खो चुका था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मज़लूमाना क़त्ल ,खाना-ए- काबा को आग लगाना, मदीना-ए-रसूल को तबाह करना व इस्लामी शरीयत व क़ावानीन की तौहीन वग़ैरह ऐसी बुरी बातें थी जो मुस्लिम समाज के ज़मीर को हर पल झिज़ोड़ रही थी। समाज की ग़ैरत जागी और फिर यह ज्वाला मुखी इस तरह फ़टा कि बनी उमैया को सिर छुपाने के लाले पड़ गये। बनी अब्बास ने मौक़े से फ़ायदा उठाया और आले रसूल के नाम पर सारतुल हुसैनी के नारे के साथ इंक़लाब को हवा दी और आम जनता पर अपना क़बज़ा जमाना शुरू कर दिया । यानी इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का समय वह समय था जब बनी अब्बास शासन पर कबज़ा करने व बनी उमैया अपने शासन को बचाने की फ़िक्र में लगे थे। इस लिए हुकूमत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की तरफ़ ज़्यादा ध्यान न दे सकी और आपको इतना मौक़ा मिल गया कि मसनदे इमामत पर बैठ कर ज्ञान प्रसार कर सके।

अब जो इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपनी ज़बान को हरकत दी तो ज्ञान  का वह सैलाब आया जिसके सामने जिहालत की गन्दगी क़दम न जमा सकी। इसी को देखते हुए मिस्टर मीर अली जस्टिस ने अपनी किताब तारीख़े अरब में उस समय का वर्णन करते हुए लिखा कि “इस में कोई मत भेद नही कि उस समय में इंसान की फ़िक्र बहुत विकसित हुई क्षान का प्रसार इस हद तक हुआ कि आम सभाओं में दार्शनिक बहसे होने लगीं। परन्तु यह बात ध्यान रहे कि इन समस्त गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम थे। उनकी नज़र में गहराई और विचारों में व्यापकता पाई जाती थी तथा उनके ज्ञान के हर क्षेत्र में पूर्ण महारत प्राप्त थी।”

जब बीसवीँ शताब्दी ई. में इस्टारास बर्ग यूनिवर्सिटी के इस्लामिक डिपार्टमेंन्ट की नज़र इस महान ज्ञानी के व्यक्तित्व पर पड़ी तो पच्चीस प्रोफ़ेसर्स ने मिल कर अपके व्यक्तित्व पर रिसर्च करना आरम्भ किया  और जब उनकी यह रिसर्च समाप्त हुई तो यह पच्चीस के पच्चीस प्रोफ़ेसर्स अचम्भित हो गये कि क्या अब से तेरह सौ वर्ष पहले भी कोई इंसान इन चीज़ों के बारे में विचार कर सकता था और अपना दृष्टिकोण दे सकता था जो आज के इस आधुनिक युग में भी मुश्किल है। इसी लिए उन्होने इमाम को SUPER MAN  का खिताब दिया और फिर इमामक के ज्ञान को जनता के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए अपनी इस रिसर्च को किताब का रूप दे कर इस किताब का नाम  SUPER MAN IN ISLAM  रखा।

इमाम के जिन ज्ञानात्मक तथ्यों को उन्होनें इस किताब में जमा किया है उनके कुछ विशेष भागों से मैने अपने इस लेख को सुसज्जित किया है। इमाम ने उस ज़माने में लोगों को जिन ज्ञानात्मक तथ्यों से परिचित कराया वह इतने उच्चस्तरीय हैं कि अगर इन शोधकर्ताओं के पास उनके दस्तावेज़ात मौजूद न हों तो आज की इस दुनियाँ में कोई उन पर यक़ीन करने के लिए तैयार न होगा। इस किताब से कुछ नमूने आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं।

1.      इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम वह पहले इंसान हैं जिन्होंने खगोल विद्या के बारे में दुनिया को सही फ़िक्र उस समय दी जब आपकी आयु केवल दस वर्ष थी। वाक़िया यह है कि इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम का एक शागिर्द मुहम्मद बिन फ़ता जब मिस्र से पलट कर मदीने आया तो उसने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को बतलीमूस के दृष्टिकोण पर आधारित सोर मण्डल का एक माडल भेंट किया। इस माडल में ज़मीन को दुनिया के केन्द्र बिन्दु के रूप में प्रदर्शित किया गया था तथा सूरज व चाँद को ज़मीन की चारो ओर घूमते हुए दिखाया गया था। इस माडल में सूरज की गति को बारह बुरजों में विभाजित किया गया था। बतलीमूस ने यह दृष्टिकोण इमाम से पाँच सौ साल पहले पेश किया था और तब से बिना किसी आपत्ति के इसको कबूल किया जा रहा था। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने जब उस माडल को अपने पिता के पास रखे देखा तो उस को  विचारात्मक निगाहों से देखने लगे। अचानक आपके होंटों पर मुस्कुराहट बिख़र गई और आपने अपने पिता के शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा कि बतलीमूस का यह दृष्टि कोण ग़लत है। इमाम के इस वाक्य ने वहाँ मौजूद सभी लोगों को स्तब्ध कर दिया। क्योँकि पाँच सौ वर्षों से हर इंसान इसी दृष्टिकोण के आधार पर खगोल विद्या में रिसर्च कर रहा था। मगर इमाम ने इस को एक पल में ग़लत सिद्ध करते हुए कहा कि  “ दुनिया का केन्द्र ज़मीन नही बल्कि सूरज है और ज़मीन अपनी परीधी में घूमते हुए सूरज के चारो तरफ़ चक्कर लगाती है। अपनी परीधी में घूमने के कारण दिन व रात उत्पन्न होते हैं और सूरज के चारो ओर घूमने की वजह से मौसम बदलते हैं। ” इमाम से पहले पूरब व पश्चिम में किसी ने भी बतलीमूस के इस दृष्टिकोण का विरोध नही किया था।

2.      इसके बाद वह लिखते हैं कि इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने न सिर्फ़ अपने आदरनीय पिता के विद्या कक्ष में सब को अपनी प्रतिभा से अच्मभित किया बल्कि जब आपने अरस्तु की एक हज़ार साल से चली आरही फ़िज़िक्स को चैलेंज किया तो उस ज़माने के बड़े बड़े दार्शनिक काँप कर रह गये। जब इमाम की नज़र अरस्तु के अनासिरे अरबा (आधार भूत चार तत्वो) के दृष्टिकोण पर पड़ी तो आप ने अपने एक बयान से दुनिया को अचम्भे में डाल दिया। चूँकि अरस्तु का दृष्टिकोण यह था कि इस दुनिया की बुनियाद सिर्फ़ चार तत्वों पर है आग, पानी मिट्टी और हवा। आपने कहा कि मुझे अफ़सोस है कि अरस्तु जैसे महान इंसान ने ग़ौरो फ़िक्र से काम क्योँ नही लिया कि  उसने आग, पानी मिट्टी व हवा को एक एक तत्व मान लिया ? जबकि मिट्टी एक तत्व नही बल्कि चन्द तत्वों का मिश्रण है। हवा एक तत्व नही बल्कि चन्द तत्वो से मिल कर बनी है। पानी एक तत्व नही बल्कि चन्द तत्वों पर आधारित है। इमाम वह पहले इंसान हैं जिन्होंने इंसान को पहले से चले आ रहे दृष्टिकोणों पर फिर से विचार करने और उन में सुधार लाने का निमन्त्रण दिया। आपने कहा कि हवा एक तत्व नही बल्कि अनेक तत्वों का मिश्रण है और साँस लेने के लिए उन समस्त तत्वों की ही आवश्यक्ता है। इमाम का यह दृषटि कोण उस समय सत्य सिद्ध हुआ जब लादवाज़िये ने उन्नीसवी शताब्दी में OXYGEN  को हवा की अन्य गैसों से अलग करके दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। इस तरह उन शोधकर्ताओं ने इमाम के ज्ञान का परिचय कराया और बताया कि इमाम ने अपने यह दृष्टिकोण उस समय दिये जब कोई इतनी योग्यता न रखता था कि उनके ऊपर कार्य करता व दुनिया को फ़ायदा पहुँचाता। या यह भी कहा जा सकता है कि दुनिया की फ़िक्र अभी इतनी विकसित नही हुई थी कि उन दृष्टिकोणों से फ़ायदा उठा सकती अर्थात इमाम अपने समय से कई सौ वर्ष बाद की बाते बयान कर रहे थे।

3.      वह लिखते हैं कि दुनिया में सबसे पहले जिन्होंने LIGHT THEORY पर अपने विचार व्यक्त किये वह इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम थे। इमाम ने इस बारे में यह विचार दिया था कि रौशनी किसी भी वस्तु की ओर से हमारी आँख़ो की तरफ़ आती है। और वह चीज़ हम देखने लगते हैं। वह रौशनी जो हमारी आँखों में एक दूर रखी चीज़ की ओर से आती है उसका कुछ हिस्सा ही हमारी आँखों में चमक पैदा करता है जिसके कारण हम दूर रखी वस्तुओं को सही प्रकार नही देख पाते अगर कोई ऐसा उपकरण बना लिया जाये जो दूर की चीज़ से हमारी आँख़ो की ओर आने वाली रौशनी को जमा कर के हमारी आँख़ों की पुतलियों तक पहुँचा दे तो हम दूर की चीज़ को भी आसानी के साथ देख सकते हैं। बाद में यह दृष्टिकोण इमाम के शिष्यों के द्वारा  आस पास के इलाक़ों में फैला और सलीबी जंगों के बाद जब पूरब पश्चिम के बीच सम्बन्ध बढ़े तो यह दृष्टिकोण यूरोप में हस्तान्त्रित हुआ और वहाँ पढ़ाया जाने लगा। इंग्लैंड की OXFORD UNIVERSITY का मशहूर उस्ताद ROGER BEACON भी इस THEORY  को पढ़ाता था। यहाँ तक कि सन् 1606 ई. में इसी दृष्ट्कोण पर कार्य करते हुए लैबपर्शी दूरबीन के अवष्कार में सफल हुआ और फिर इस दूरबीन के सहारे सन् 1610 ई. में गैलीलियो ने अपनी आसमानी दूरबीन बना डाली और सात जनवरी की रात को पहली बार उस दूरबीन के सोर मण्डल को देखा गया। अब आप ही बतायें कि अगर इमाम अलैहिस्सलाम रौशनी का यह दृष्टिकोण न देते तो क्या लेबपर्शी दूर बीन बना सकता था? क्या गलीलियों सोर मण्डल को देख कर दुनिया को फ़ायदा पहुँचा सकता था? यह सब इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की ही देन है।

4.     हक़ीक़त तो यह है कि इमाम ने तेरह सौ वर्ष पूर्व ऐसे तथ्यों पर अपने विचार प्रकट किये जिनका समझना बीसवी शताब्दी तक इंसान के बस की बात नही थी। इमाम ने उस समय में POLUTION प्रदूषण जैसे तथ्य पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि इंसान को इस तरह जीवन व्यतीत करना चाहिए कि उसका वातावरण प्रदूषित न होने पाये। क्योंकि अगर वातावरण प्रदूषित हो गया तो एक दिन ऐसा आयेगा कि उसके लिए जीवित रहना मुशकिल या असम्भव हो जायेगा।  क्या आज से बीस वर्ष पहले तक कोई प्रदूषण के बारे में विचार कर सकता था? हाँ जब तीस वर्ष पहले दूसरी बार इमाम की के इस विचार को बढ़ावा मिला और दुनिया ने वातावरण के प्रदूषण की ओर अपने ध्यान को केन्द्रित किया व इसके ख़तरों को समझा तो सादिके आले मुहम्मद का यह दृष्टिकोण आम हो गया।

इस तरह इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने अति सूक्ष्म दृष्टिकोणों के ज़रिये ज्ञान प्रसार को चरम सीमा तक पहुँचाया ताकि आने वाली नस्लें उन पर ग़ौर कर के अपने ज़माने की मुश्किलों को हल कर सकें। 

 परन्तु अन्य इमामों की तरह इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम भी अधिक समय तक शासक वर्ग से सुरक्षित न रह सके और अन्ततः उनके अत्याचार का निशाना बन गये। इतिहास साक्षी है कि ज्ञान का प्रसार व प्रचार करने वाले इस महान इंसान को मंसूर दवानक़ी नामक शासक ने ज़हर खिलावाया जिसके नतीजे में आप सन् 148 हिजरी क़मरी में शव्वाल मास की 25वी तारीख को शहीद हो गये। आपकी नमाज़े जनाज़ा इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने पढ़ाई व आपको जन्नतुल बक़ी नामक कब्रिस्तान में दफ़्न किया गया।